सैद्धांतिक संतुलन का संघर्ष

दोबारा सरकार बनाने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने 'सबका साथ, सबका विकास और विश्वास' का जो मूल मंत्र प्रस्तुत किया है वह सुनने में तो आसान लग सकता है लेकिन व्यावाहिक तौर पर कतई आसान नहीं है। सबका विश्वास का मतलब है सबका एक समान भरोसा हासिल करना। यह एकरूपता सिर्फ सांप्रदायिक स्तर की बात नहीं है बल्कि हर मायने में इसका पैमाना एक सा होना चाहिए। यानी, अगर सुनी जाएगी तो सबकी बात सुनी जाएगी। अगर मानी जाएगी तो सबकी बात मानी जाएगी। अगर हित सुरक्षित करने बात आएगी तो सबके हितों को एक बराबर महत्व दिया जाएगा। यह एकरूपता हर स्तर पर होगी। इसमें किसी की बात को, किसी के विचार को या किसी की भावना को केवल इस वजह से खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि वह विपक्ष से संबद्ध है। यही बात प्रधानमंत्री के उन बयानों से भी प्रमाणित होती है जिसमें उन्होंने बहुमत के बजाय सर्वसहमति से कोई भी फैसला करने की बात बारंबार कही है। निश्चित ही इस स्तर पर देखें तो सबका विश्वास की बात सैद्धांतिक तौर पर काफी हद तक धर्मनिरपेक्षता की वैसी ही सोच के साथ जुडती हुई महसूस होती है जिसके तहत इस विचार को सर्वधर्म समभाव का पर्याय माना जाता है। लेकिन जिस तरह से धर्मनिरपेक्षता का मायने-मतलब हर नयी सरकार के साथ बदल जाता है वैसा ही सबका विश्वास की भावना में भी व्यावहारिक स्तर पर हर समय एकरूपता बरकरार रह पाने की उम्मीद काफी कम दिखाई पड़ रही है। वर्ना एक ओर सबको एक साथ जोड़कर सर्वसम्मति से ही कोई निर्णय करने की बात कहना और दूसरी ओर उन विवादास्पद मसलों पर आक्रामक तेवरों का इजहार करने की नीति पर एक साथ कतई अमल नहीं किया जाता। इस लिहाज से सत्रहवीं लोकसभा का गठन होने के बाद आयोजित हो रही भाजपा संसदीय दल की पहली बैठक पर सबकी निगाहें टिकी हुई हैं। अव्वल तो इस बैठक में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबोधन की विषय वस्तु को लेकर सबमें उत्सुकता है और दूसरी ओर जिस तरह से संसदीय दल की पहली ही बैठक में 'तीन-तलाक' और 'निकाह-हलाला' से जुड़े विधेयक के बारे में सांसदों को विस्तार से जानकारी देने और एक साथ चुनाव की आवश्यकता को लेकर उनका ज्ञानवर्धन किये जाने की बात कही जा रही है उसे देखते हुए सत्ता पक्ष के सांसदों में सैद्धांतिक मसलों पर आक्रामक तेवरों का मार्गदर्शन दिये जाने के नतीजों को लेकर भी उत्सुकता का माहौल है। संसदीय दल की पहली ही बैठक में विवादास्पद मसलों को तूल दिये जाने की पहल को देखते हुए इतना तो तय है कि इस बार संसद में सत्ता पक्ष के सांसदों की आक्रामकता का स्तर काफी ऊपर रहने वाला है लेकिन इसके बीच दिलचस्पी इस बात को लेकर है कि एक ओर आक्रामकता और दूसरी ओर सबको साथ लेकर सर्वसम्मति से शासन के संचालन की नीति के बीच प्रधानमंत्री मोदी किस तरह संतुलन कायम करते हैं। भाजपा के उच्चपदस्थ सूत्रों ने पार्टी के संसदीय दल की पहली बैठक के बारे में उक्त जानकारियां देते हुए बताया कि पहले से भी अधिक बहुमत के साथ केन्द्र की सत्ता में वापसी करने में हासिल सफलता को लेकर सभी सांसद प्रधानमंत्र मोदी के स्वागत का प्रस्ताव पारित करेंगे और पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह सहित मोदी केबिनेट के सभी नए सदस्यों का भी बैठक में खास तौर पर स्वागत किया जाएगा। इस बैठक की अध्यक्षता प्रधानमंत्री मोदी करेंगे और सांसदों को इस बजट सत्र के लिये महत्वपूर्ण मार्गदर्शन भी देंगे। उन्होंने बताया कि सुबह नौ बजे संसद भवन के प्रांगण में स्थित जीएमसी बालयोगी सभागार में आयोजित होने जा रही इस बैठक में सांसदों को सदन के दोनों सदनों में पेश किए जाने वाले विधेयकों के बारे में जानकारी भी दी जाएगी और खास तौर से मुस्लिम महिलाओं के वैवाहिक हितों की सुरक्षा के लिए लाए गए 'तीन तलाक व निकाह हलाला' पर रोक के विधेयक के बारे में विस्तार से जानकारी देते हुए इसके सभी सैद्धांतिक, व्यावहारिक व राजनीतिक पहलुओं के बारे में उन्हें बताया जाएगा। इसके अलावा चुनाव सुधार को लेकर मोदी सरकार की 'एक राष्ट्र एक चुनाव' की नीति के तहत प्रस्तावित विचार पर भी सांसदों का ज्ञानवर्धन किया जाएगा और उन्हें इस मसले को राष्ट्रीय विमर्श में शामिल करने के अभियान में पूर्ण सक्रियता के साथ सहभागी बनने के तौर-तरीके भी बताए जाएंगे। लिहाजा सवाल है कि आखिर जब विवादास्पद मसलों को तूल दिया जाएगा तो संवाद की राह कैसे निकलेगी। माना कि तीन तलाक का मसला भाजपा का चुनावी मुद्दा भी था और इस मसले को मोदी सरकार ने पहले भी वरीयता सूची में सबसे आगे रखा हुआ था। लेकिन अगर इस मामले को लेकर सरकार द्वारा बनाई जा रही व्यवस्था पर सहमति नहीं बन पा रही है तो इसमें मनमानी करने के बजाय आम राय से आगे बढने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता। वह भी तब जबकि समूचा विपक्ष भी इस बात पर एकमत है कि तीन तलाक और निकाह हलाला सरीखी असंवैधानिक कुप्रथाएं समाप्त होनी चाहिएं। लेकिन इसे आपराधिक कृत्य बनाकर ऐसा करनेवालों को तीन साल की सजा का जो प्रावधान किया जा रहा है उसको लेकर विवाद हो रहा है। ऐसे में क्यों नहीं इस विधेयक को संसद की प्रवर समिति या स्थाई समिति के अथवा एक सर्वदलीय समिति के हवाले कर दिया जाता जहां समाज के सभी वर्गों की राय लेकर इसका एक सर्वसम्मत स्वरूप सामने आए। इसी प्रकार एक साथ चुनाव के मसले पर भी एक विचार थोपने के बजाय इसके अन्य विकल्पों व पहलुओं को भी तो टटोला जा सकता है। आखिरकार राज्यसभा में तीन तलाक विधेयक पर विपक्ष को साथ लेना ही होगा और एक साथ चुनाव के मसले पर भी आम सहमति के बाद ही संविधान में कोई बदलाव किया जा सकेगा। लेकिन एक ओर अपनी जिद पर अडना और दूसरी ओर सबका यकीन जीतने की बात करना कहीं ना कहीं यही बता रहा है कि इस विचार के सैद्धांतिक व व्यावहारिक स्वरूप में एकरूपता के लिये अभी इंतजार ही करना होगा।