व्यवस्था में सुधार की दरकार




पश्चिम बंगाल में मरीज की मौत से भड़के तीमारदारों और परिजनों ने चिकित्सकीय लापरवाही का इल्जाम लगाते हुए चिकित्सक के साथ जो मारपीट की उसके बार सूबे की सरकार से समुचित संरक्षण नहीं मिलने से तमतमाए समूचे देश की चिकित्सक बिरादरी ने आंदोलन और हड़ताल की राह पकड़ ली है। तमाम बड़े अस्पतालों ने अलग से अपना विरोध जताया है और इनके प्रादेशिक व राष्ट्रीय स्तर के संगठनों ने अलग से राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया है। यानि तस्वीर ऐसी उभर कर सामने आई है मानो चिकित्सक बिरादरी आम इंसानों का नहीं बल्कि खूंखार दरिंदों को अपनी सेवाएं दे रही है और उससे संरक्षण के लिये उसे व्यापक सुरक्षा और सरकारी संरक्षण की दरकार है। माना कि देश के तकरीबन सभी हिस्सों में चिकित्सकों और मरीजों के बीच तनातनी, कहासुनी और कई बार मारपीट की भी तस्वीर देखी जाती है लेकिन इन मामलों को अपवाद के तौर पर ही देखा जाना उचित होगा। आज भी समाज में चिकित्सकों को भगवान का ही दर्जा दिया जाता है और उनके साथ किसी किस्म की बदतमीजी करना तो किसी का शगल या शौक हो ही नहीं सकता। लिहाजा जिस तरह से अभी देश में बेगाल की घटना की आड़ लेकर पूरे देश में एक अजीबोगरीब माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है वह दुखद भी है और सोचनीय भी। सोचनीय इसलिये कि आखिर मरीजों की समस्याओं की सुध कौन लेगा! अगर बंगाल की घटना पर रोष ही जताना था तो उसके कई और भी तरीके हो सकते थे। लेकिन अचानक से पूरे देश की चिकित्सकीय व्यवस्था को ठप्प करके अपनी ताकत का एहसास कराने का प्रयास करना कैसे सही कहा जा सकता है। वास्तव में देखा जाए तो आज की तारीख में चिकित्सकों और मरीजों के आपसी रिश्तों को लेकर एक नए बहस की जरूरत है ताकि दोनों पक्षों की समस्याओं को सुन व समझ कर उसका समुचित निराकरण करने का प्रयास किया जाए। चिकित्सकों का अपना रोना है कि उनके काम के घंटे बहुत अधिक हैं और उसके अनुरूप उन्हें पैसा नहीं मिलता। उनके रहने और काम करने के स्थान का माहौल और वातावरण ठीक नहीं है। या और भी तमाम समस्याएं उन्हें झेलनी पड़ रही हैं। लेकिन आखिर इस सबमें देश के उस सीमांत आदमी का क्या कसूर है जो हारी-बीमारी में चिकित्सक को भगवान समझकर अस्पताल चला आता है। उम्मीद होती है कि अस्पताल में उसे इलाज मिलेगा लेकिन मिलती हैं समस्याएं, दुत्कार और तारीख। एक सामान्य से बुखार का भी इलाज कराने के लिये अगर कोई आम आदमी किसी सरकारी अस्पताल चला जाए तो उसे जिन परिस्थितियों और परेशानियों का सामना करना पड़ता है उसकी कल्पना ही किसी का भी रूह कंपा देने के लिये काफी है। लेकिन इस ओर ना तो कभी किसी का ध्यान जाता है और ना इस पर कभी चर्चा होती है। अगर इस समस्या की वास्तविक तस्वीर देखनी और समझनी हो तो इसके लिये सरकार को किसी राॅकेट साइंस पर अमल करने की जरूरत नहीं है। किसी भी अस्पताल में आए हुए मरीजों के बीच एक सैंपल सर्वे ही करवा लिया जाए तो पता चल जाएगा कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में आम आदमी को कितनी राहत मिल पाई है और उसे कितनी आफत झेलनी पड़ रही है। दरअसल देश में स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में जिस कदर लूट मची हुई है उसे सीधे शब्दों में लोगों के हितों पर डाका का नाम देना कतई गलत नहीं होगा। गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवाएं सिर्फ रसूखदार तबके को ही मुहैया हो पा रही है और आम आदमी बेबस है, लाचार है, मजबूर है। उसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है। यह दलील सुनने में बड़ी सहज लगती है कि अगर चिकित्सकीय लापरवाही से किसी की मौत हुई भी है तो उसकी जांच के लिये अदालत में या उचित फोरम पर आवेदन दिया जा सकता है। लेकिन क्या ऐसा होना सहज है? इस बात में कोई शक नहीं है कि चिकित्सकों को तमाम समस्याओं और चुनौतियों के बीच अपना काम करना पड़ रहा है लेकिन यह भी सच है कि देश में मौजूद स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता और सुलभता से आम व सीमांत आदमी कतई खुश या संतुष्ट नहीं है। ऐसे में सवाल है कि जब दोनों ही पक्ष नाखुश हैं तो इस व्यवस्था में सुधार और बदलाव की मांग एकतरफा तरीके से क्यों कही व सुनी जा रही है। जिस आम आदमी की गाढ़ी कमाई से अदा हुई टैक्स की रकम से पूरे देश की व्यवस्था संचालित हो रही है उसका हित और उसका पक्ष आखिर कौन सामने रखेगा। केन्द्र की मोदी सरकार ने चिकित्सकों की कमी के कारण उत्पन्न हो रही समस्याओं से निपटने के लिये कई कदम उठाने की कोशिश की जिसके तहत एक प्रावधान यह भी किया जा रहा था कि वैकल्पिक चिकित्सा प्रणाली को भी मुख्यधारा की चिकित्सा व्यवस्था से जोड़ा जाए और उनके बीच एक तारतम्यता बनाकर आयुर्वेद, होमियोपैथ, यूनानी, सिद्धा और प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली को भी उस स्तर पर लाया जाए जहां इन सबका समूह एक साथ मिल कर आम लोगों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करा सके। लेकिन इस प्रस्ताव का चिकित्सा जगत ने इतना भारी विरोध किया कि संसद में वह बिल पड़ा ही रह गया। चर्चा तो हुई लेकिन इसे पारित नहीं किया जा सका। लिहाजा चिकित्सा व्यवस्था पर पूरा एकाधिकार आज भी देश के उन कुल सवा तीन लाख अंग्रेजी चिकित्सकों का है जिन्हें कथित तौर पर सांस लेने की भी फुर्सत नहीं मिल पा रही है। बेशक चिकित्सकों के साथ किसी भी स्तर पर होनेवाली हिंसा और दुव्र्यवहार की कठोर शब्दों में निंदा की जानी चाहिए और सरकार को उनकी सुरक्षा व सुविधाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए। लेकिन इस सबसे अलग हटकर अब इस बात पर विचार करना चाहिये कि आम लोगों को सहज, सरल, सुलभ, सस्ती और गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सुविधाएं कैसे मुहैया कराई जाएं। पांच लाख तक की चिकित्सा का कार्ड थमा देने या स्वास्थ्य बीमा करा देने से मसले का हल नहीं होने वाला। यह तो जन-धन की लूट का एक नया रास्ता ही खोलेगा। बेहतर होगा कि स्वास्थ्य के बजट को बढ़ाया जाए और मरीज की संतुष्टि को पैमाना बनाकर स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता को मापा जाए।