यह कैसा इंसाफ?






जम्मू कश्मीर के कठुआ में बक्करवाल समुदाय से ताल्लुक रखनेवाली नाबालिग मासूम को देवी के मंदिर में बंधक बनाकर उसके साथ दरिंदों से भी अधिक क्रूरता के साथ कई दिनों तक सामूहिक बलात्कार करने के बाद उसे तड़पा तड़पाकर मार देने और उसकी लाश को जानवरों के खाने के लिये जंगल में फेंक देने के आरोपियों को लंबी सुनवाई के बाद आखिरकार सजा मिल ही गई है। इस वीभत्स वारदात के मामले में पठानकोट सेशन कोर्ट ने सात में से छह आरोपियों को दोषी करार देते हुए मामले के मुख्य साजिशकर्ता सांजी राम, परवेश कुमार और पुलिस अधिकारी दीपक खजुरिया को उम्रकैद की सजा सुनाई जबकि पुलिस ऑफिसर सुरेंदर शर्मा, हेड कॉन्स्टेबल तिलक राज और एसआई आनंद दत्ता को पांच-पांच साल की कैद की सजा दी गई है। हालांकि इस मामले में जिस तरह से महज सत्रह महीने के भीतर जांच व सुनवाई पूरी करते हुए दोषियों के लिये सजा का ऐलान भी कर दिया गया है वह निश्चित तौर पर बेहद सुकूनदायक और न्याय व्यवस्था के प्रति आम लोगों के विश्वास को सुदृढ करने वाला ही है। लेकिन दोषियों को जिस तरह की सजा दी गई है उससे निश्चित तौर पर हर किसी को एक मायूसी और खालीपन का एहसास सता रहा है। वह इसलिये क्योंकि यह मामला सामान्य कतई नहीं था। बल्कि इसे दुर्लभतम से भी कहीं अधिक दुर्लभ कहना कतई गलत नहीं होगा। अव्वल तो जिस बच्ची को हैवानियत का शिकार बनाया गया उसकी उम्र महज आठ साल की थी। लिहाजा इस बच्ची के गुनहगारों को फांसी से कम सजा मिलने की शायद ही किसी को उम्मीद रही हो। दूसरे इस पूरे मामले में कई ऐसे पहलू हैं जो इसे दुर्लभतम से भी कहीं अधिक दुर्लभ, असहनीय व अमानवीय बनाते हैं। मसलन इस मामले में सिर्फ हवस का पहलू ही नहीं है बल्कि उस इलाके से बक्करवाल समुदाय को डराकर भगाने के लिये इस पैशाचिक कृत्य को अंजाम दिया गया। इसके लिए शिकार बनाया गया आठ साल की मासूम को जिसने अभी दुनिया देखने की शुरूआत ही की थी। बड़ा भरोसा था उसे इंसानों पर। उसे बहकाया गया यह कहकर उसका घोड़ा ढृूंढ़ने में उसकी मदद की जाएगी। वह उस बहकावे में आ गई और बहकानेवाले के साथ जंगल में चली गई। एक बार उसने जंगल में कदम क्या रखा उसके बाद वह कभी दुनिया देख ही नहीं पाई। जंगल में बेहोश करने के बाद उसे बंधक बनाया गया देवी के मंदिर में। मंदिर के भीतर उसे लगातार नशीली दवाएं देकर नीम-बेहोशी की हालत में रखा गया। उसी स्थिति में उसके साथ आधा दर्जन से अधिक लोगों द्वारा हैवानियत की हर सरहद पार करने की बात तो अदालत में भी साबित हो गई है। हम कैसे समाज में जी रहा हैं उसका कच्चा चिट्ठा खोल दिया है इस मामले ने। कहने को हम सभी सभ्य समाज का हिस्सा हैं लेकिन यह कैसी सभ्यता है हमारी जहां बीते साल दस जनवरी को उस बच्ची का अपहरण करने के बाद उसे लगातार कई लोगों द्वारा देवी के मंदिर में हवस का शिकार बनाया गया और 13 जनवरी को जब आरोपियों ने उस बच्ची की हत्या करके उससे छुटकारा पाने की योजना बनाई तो पुलिस अधिकारी दीपक खजुरिया ने उन्हें ऐसा करने से यह कह कर रोक दिया कि बच्ची के साथ वह भी दुष्कर्म कर ले उसके बाद ही उसे मौत के घाट उतारा जाए। यानी जिस पुलिस पर समाज इतना अधिक भरोसा करता है कि कुछ भी सही गलत होने पर लोग सीधा पुलिस के पास ही पहुंचते हैं उसी पुलिस ने अपना जो घिनौना चेहरा इस कांड में दिखाया है उसके लिये सिर्फ उम्र कैद की सजा को कैसे काफी कहा जा सकता है। इसी प्रकार देवी के मंदिर में जहां पुजारी ही ऐसे कृत्य को अंजाम दे रहा हो वहां किस धर्म और आध्यात्म की बात सोची जा सकती है। आखिर कैसा समाज बना दिया है हमने जहां सिर्फ पैसा बोलता है ओर पैसे की ही चलती है। चार लाख की रिश्वत के एवज में पुलिस भी उस आठ साल की बच्ची के साथ पैशाचिक वारदात में भागीदार बन गई तो फिर कैसे इन वर्दीधारियों पर कोई यकीन करेगा कि वे उसके लिये इंसाफ का दरवाजा खुलवाएंगे। वह तो गनीमत रही समाज की कि मामले के सामने आने के बाद ना सिर्फ देश में बल्कि बल्कि विदेशों तक इसकी गूंज सुनाई दी और व्यापक विरोध प्रदर्शन के बाद मामले की जांच कुछ हद तक निष्पक्षता के साथ हो सकी और इतने साक्ष्य व सबूत एकत्र किये जा सके जिसके दम पर आरोपियों का गुनाह भी साबित हुआ और उनके लिये सजा का भी ऐलान हुआ। हालांकि यह एक अलग बहस का मसला हो सकता है कि जान से मार देना अधिक कठोर सजा है या पूरी उम्र के लिये हवालात में सड़ने और एड़ियां घिसट कर अपने लिये मौत की गुहार लगाने के लिये छोड़ देना अधिक उचित है। लेकिन अब सलाखों के पीछे आरोपियों को जो दुख व कष्ट का अनुभव होगा वह उनका निजी भी होगा और अकेले का कतई नहीं होगा। तमाम जेलें भरी पड़ी हैं अपराधियों से जो इन सबों को भी अपने मे समाहित कर लेंगे और उन्हें कम से कम अकेलेपन का एहसास तो कतई नहीं होने देंगे। दूसरी ओर समाज में भी इससे कोई ऐसा संदेश नहीं गया है ताकि ऐसे अपराध को अंजाम देने से पहले कोई भी एक बार ठहर कर इसके अंजाम के बारे में सोचे। हालांकि यह इंसाफ पहले पायदान का है अभी कई अदालतों में इस मामले में इंसाफ होना है और उम्मीद की जानी चाहिये कि निचली अदालत ने जो सजा में कुछ कमी की है उसमें ऊपरी अदालतें सुधार अवश्य करेंगी। लेकिन इस मामले को जिस तरह से सांप्रदायिक रंग दिया गया और बच्ची के लिये इंसाफ मांगनेवालों को एक सम्प्रदाय विशेष का हितैषी करार देते हुए सोशल मीडिया पर उनके खिलाफ कैंपेन चलाया गया वह ना सिर्फ दुखद बल्कि शर्मनाक भी है। लिहाजा आईना हम सब को देखने की जरूरत है और आईने में अपनी शक्ल यदि झेल नहीं पा रहे तो निश्चित ही सुधार की शुरूआत बाहर से नहीं बल्कि अपने अंदर से ही करना होगा।