आधी आबादी को मिला पूरा इंसाफ




तलाक-ए-बिद्दत यानी तीन तलाक की सदियों पुरानी कुप्रथा के ताबूत पर आज राज्य सभा ने आखिरी कील ठोंक दी है। हालांकि इस कुप्रथा को सुप्रीम कोर्ट ने तो वर्ष 2017 में ही अमानवीय और गैरकानूनी करार दे दिया था लेकिन इस पर पूरी तरह रोक लगाने के लिये आवश्यक कानून को अस्तित्व में आने में दो साल की देरी हो गई जिसके लिये सीधे तौर पर वोट बैंक की राजनीति ही जिम्मेवार है। वर्ना मोदी सरकार ने तो सोलहवीं लोकसभा के दौरान भी इस विधेयक को पहली बार 28 दिसंबर 2017 को जबकि दूसरी बार 27 दिसंबर 2018 को संसद के निचले सदन से पारित कराने में कामयाबी हासिल कर ली थी लेकिन राज्यसभा में बहुमत का आंकड़ा उपलब्ध नहीं होने के कारण सरकार इसे संसद की मंजूरी दिलाने में कामयाब नहीं हो पायी। वह भी तब जबकि 2017 में सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग धर्मों वाले 5 जजों की बेंच ने 3-2 से फैसला सुनाते हुए तत्काल प्रभाव से तीन तलाक को असंवैधानिक घोषित करते हुए सरकार को इसके लिये छह महीने के अंदर कानून लाने का निर्देश दिया था। नतीजन अब तक हर छह माह पर अध्यादेश लाकर सरकार को इस मसले पर कानून लागू करने के लिये विवश होना पड़ा था लेकिन सत्रहवीं लोकसभा में बदले हुए संख्या बल ने इस कानून के पारित होने की उम्मीद एक बार फिर जगा दी। सरकार ने भी अपने इस चुनावी वायदे को पूरा करने के लिये बजट सत्र को तयशुदा समय से आगे भी बढ़ाया और कांग्रेस, सपा, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक सहित अन्य विपक्षी पार्टियों द्वारा विधेयक के विरोध में वॉकआउट किये जाने के बाद लोकसभा से विधेयक को ध्वनिमत से पारित भी करा लिया। हालांकि राज्यसभा के संख्या बल को देखते हुए इस अधिनियम के पारित हो पाने को लेकर कुछ आशंकाएं अवश्य थीं लेकिन जदयू, एआईएडीएमके और टीआरएस समेत अन्य दलों के सदन से वॉकआउट का जाने और पीडीपी व बसपा द्वारा मतदान में हिस्सा लेने से इनकार कर दिये जाने के बाद सदन में पर्ची के द्वारा वोटिंग कराई गई जिसमें विधेयक के पक्ष में 99 और विरोध में 84 वोट पड़े। इस प्रकार आखिरकार देर आयद दुरूस्त आयद की तर्ज पर अब संसद के दोनों सदनों ने इस कुप्रथा के खात्मे के लिये लाए गए मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम को पारित कर दिया है। इस अध्यादेश के कानून की शक्ल में लागू होने की राह में अब महज कुछ औपचारिकताएं ही बाकी हैं जिसके तहत राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद यह लागू हो जाएगा। इस बिल के अनुसार तत्काल तीन तलाक देना अब संज्ञेय अपराध बन जाएगा जिसमें पीड़िता की शिकायत मिलते ही पुलिस बिना वारंट के ही ऐसा करने वाले को तत्काल गिरफ्तार कर सकती है। इस में शिकायत दर्ज कराने का अधिकार या तो पीड़िता को होगा या फिर पति या पत्नी के रक्त संबंधी ही इस मामले में शिकायत दर्ज करा पाएंगे। अध्यादेश में तीन तलाक देने वाले पति के लिये तीन साल की सजा का प्रावधान किया गया है। बिल में यह प्रावधान भी किया गया है कि पीड़ित महिला का पक्ष सुनने के बाद पीड़िता की सहमति से आपसी समझौता करके दोबारा परिवार बसाने के लिये पति द्वारा गलती स्वीकार किये जाने, भविष्य में दोबारा ऐसा नहीं करने का वायदा करने, पत्नी को सम्मानपूर्वक अपने साथ रखने और उसे उसका पूरा हक देने के लिये सहमत होने के बाद मजिस्ट्रेट तीन तलाक देने वाले पति को जमानत भी दे सकता है और मामले को समाप्त भी कर सकता है। लेकिन यदि पति तलाक देने पर अड़ा रहा तो उसे तीन साल की सजा भी भुगतनी पड़ेगी और पीड़िता को गुजारा भत्ता भी देना होगा।  पीड़िता को गुजारा भत्ते के रूप में कितनी रकम मिलेगी और नाबालिग बच्चे किसके पास रहेंगे इसका फैसला भी मजिस्ट्रेट द्वारा ही किया जाएगा। वास्तव में देखा जाये तो इस कुप्रथा को ना तो इस्लाम की मान्यता हासिल है और ना ही इस्लामिक देशों में इस पर अमल हो रहा है। बल्कि शिया बहुल ईरान से लेकर सुन्नी समुदाय की बहुलतावाले हमारे पड़ोसी देश चीन, श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश से लेकर तुर्की, साइप्रस, ट्यूनीशिया, अल्जीरिया और मलेशिया समेत तकरीबन 22 मुस्लिम देशों में अप्रत्यक्ष रूप से तीन बार तलाक कह कर पारिवारिक सम्बंध विच्छेद करने की कोई व्यवस्था ही नहीं है। तीन तलाक की कुप्रथा को समाप्त करने की शुरूआत वर्ष 1929 में मिस्र ने की थी जिसके बाद सूडान से लेकर  संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन, कतर और इंडोनेशिया तक में इसे अमान्य घोषित कर दिया गया। बेशक भारतीय मुस्लिम महिलाओं को इस कुप्रथा से मुक्ति पाने में काफी लंबा समय लग गया लेकिन अब उन्हें जिस तरह से सरकार ने विवाह सम्बंधों में बराबरी का दर्जा देते हुए तील तलाक को आपराधिक कृत्य बना दिया है उसे देखते हुए यही कहा जा सकता है कि देर से सही लेकिन दुरूस्त न्याय अवश्य हुआ है। चुंकि इस बिल में मौखिक, लिखित व  इलेक्ट्रॉनिक (एसएमएस, ईमेल, वॉट्सऐप) माध्यम का इस्तेमाल करके तलाक दिये जाने को अमान्य करार दिया गया और ऐसा करने वाले पति को तीन साल की सजा का प्रावधान जोड़ा गया लिहाजा यह कहना गलत नहीं होगा कि इसका असल सिर्फ तीन तलाक यानि तलाक-ए-बिद्दत तक ही सीमित नहीं रहेगा। इसने अब इस्लाम में मौजूद तलाक की अन्य व्यवस्थाओं मसलन तलाक-ए-अहसन और तलाक-ए-बाइन को भी जटिल कर दिया है जिसमें तीन मासिक चक्र के अंतराल में तीन बार अलग अलग तलाक देकर और मासिक चक्र की मुद्दत गुजारने के बाद अब तक आसानी से पति अपनी पत्नी को तलाक देते आए हैं। साथ ही इस कानून के अस्तित्व में आ जाने के बाद निकाह हलाला की जलालत से भी मुस्लिम महिलाओं को पूरी तरह मुक्ति मिल जाएगी। इस लिहाज से देखा जाये तो इस कानून के माध्यम से देश ने समान नागरिक संहिता के तहत एक देश एक कानून की आदर्श स्थिति कायम करने की दिशा में काफी बड़ा कदम बढ़ा दिया है। लेकिन अभी मुस्लिम महिलाओं को कुछ और कुप्रथाओं से मुक्ति की जरूरत है जिसमें बहुविवाह की समस्या से उन्हें छुटकारा दिलाना भी शामिल है। जाहिर है कि तलाक की प्रक्रिया जटिल होने के बाद बहुविवाह की कुप्रथा पर भी बड़ा अंकुश तो लगेगा ही जिससे समग्रता में मुस्लिम महिलाओं के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आना तय है।