अपने बाहुबल पर भरोसे की जरूरत




कारगिल युद्ध की 22वीं वर्षगांठ के मौके पर समूचे देश के दिल में बेशक जीत से हासिल गर्व की अनुभूति है लेकिन एक कसक भी है, एक टीस भी है, एक अनकहा दर्द भी है। वह टीस है पीठ में छुरा घोंपे जाने का और उससे पनने ठगे जाने के एहसास का। अगर पीछे लौट कर देखने की कोशिश करें तो कारगिल का युद्ध भारत पर ऐसे वक्त में थोपा गया था जब पहली बार देश में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में सही मायने में एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी। उस सरकार ने पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्तों की एक नयी गाथा लिखने की कोशिश की थी और खुले दिल से यह स्वीकार किया था कि हम दोस्त बदल सकते हैं लेकिन पड़ोसी नहीं बदल सकते। उस सरकार ने दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए रेल-बस सेवाएं शुरू करने से लेकर पाकिस्तान को हर मामले में अपना हमकदम बनाने की भरसक कोशिश की। यहां तक कि प्रधानमंत्री वाजपेयी ने दोनों देशों के बीच मैत्री का पैगाम देने के लिये खुद बस की यात्रा भी की। लेकिन बदले में मिला कारगिल का युद्ध। बेशक दोस्ती की ही तरह भारत ने युद्ध की चुनौती को भी पूरी शिद्दत से निभाया और पाकिस्तान को धूल चटाकर कारगिल पर दोबारा अधिकार कायम किया। लेकिन सही कहा है रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कि पाकिस्तान की हिम्मत ही नहीं है कि वह आमने-सामने की लड़ाई में भारत के खिलाफ खड़े होने की भी जुर्रत कर सके। लिहाजा वह छद्म युद्ध करके ही भारत को अधिकतम नुकसान पहुंचाने की कोशिश पहले भी करता रहा है और आज भी कर रहा है। तभी तो पूरी बेशर्मी के साथ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने अमेरिका की पहली आधिकारिक यात्रा के दौरान स्पष्ट व सार्वजनिक तौर पर स्वीकार किया है कि हालिया दिनों तक पाकिस्तान में 40 आतंकवादी शिविर थे, और पाकिस्तान की धरती पर आज की तारीख में भी लगभग 40,000 आतंकी मौजूद हैं जो अफगानिस्तान या कश्मीर के कुछ हिस्सों में प्रशिक्षित किए गए और संघर्ष में शामिल रहे हैं। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि पाकिस्तान की पिछली सरकारों ने आतंकवाद के मसले पर अमेरिका के साथ 'सच्चाई' साझा नहीं की। हालांकि पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ने अमेरिका में जो कुछ कहा, उससे पूरी दुनिया पहले से ही अवगत है। लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि उनकी सरकार ने इन 40 हजार आतंकवादियों के खिलाफ क्या कदम उठा रही है। लिहाजा एक तरह से देखा जाये तो इस स्वीकारोक्ति के माध्यम से इमरान ने अमेरिका को ही नहीं बल्कि भारत को भी परोक्ष तौर पर यह एहसास कराने की कोशिश की है कि अगर पाकिस्तान को अलग-थलग करने की नीति पर अमल जारी रहा तो अपने इन 40 हजार विध्वंसक हिमायतियों के दम पर वह विश्व के लिये भारी अशांति और सिरदर्दी का सबब बन सकता है। हालांकि इमरान की इस स्वीकारोक्ति के पीछे जो भी मंशा रही हो लेकिन इतना तो तय है कि आतंक के खिलाफ कार्रवाई के मामले में उनकी नीयत कतई ठीक नहीं है। खास तौर से भारत के खिलाफ पाकिस्तान के दिल में कितना जहर भरा हुआ है इसका सहज अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिन दिनों इमरान अमेरिका की यात्रा पर थे और विश्व शांति की दिशा में सहभागिता करने की कसमें खा रहे थे उस दौरान भी भारत की सरहद पर पाकिस्तानी फौज लगातार अकारण उकसावे वाली नीति के तहत भारी गोलाबारी कर रही थी। यानि सहज सामान्य शब्दों में समझें तो पाकिस्तान का मौजूदा नेतृत्व इस कदर अक्षम व नाकारा है कि उससे शांति की उम्मीद करना और आतंक के सफाये की दिशा में ठोस कदम उठाये जाने की आस रखना निहायत ही बेकार है। ऐसे में अब अमेरिकी राष्ट्रपति ने इमरान को यह कह कर दबाव में लेने की जो कोशिश की है उस पर कड़ी नजर रखी जाये जिसके तहत उन्होंने कथनी को करनी में बदले जाने की जरूरत पर बल दिया है। लेकिन अमेरिका की दोहरी नीति का एक नमूना यह भी है कि उसने पाकिस्तान को कोई मदद मुहैया कराने से तो परहेज बरतने का दिखावा किया है लेकिन दूसरी ओर उसके एफ-16 जहाजों के बेड़े के लिये तकनीकी सहयोग मुहैया कराने का दरवाजा भी खुला छोड़ा हुआ है। वह भी तब जबकि उसे बेहतर पता है कि पाकिस्तान को एफ-16 की जरूरत सिर्फ भारत के खिलाफ कार्रवाई करने के लिये ही है। यानि अपने हित और लाभ को अमेरिका ने आज भी सर्वोपरि रखा हुआ है लिहाजा भारत को भी चाहिये कि वह अपने हितों को सर्वोपरि रखे और आतंक के खात्मे की जिस लड़ाई का आगाज सर्जिकल स्ट्राइक और एयर स्ट्राइक के द्वारा किया गया था उसे आगे भी जारी रखे। यह बेहद सुकून की बात है कि प्रधानमंत्री मोदी ने परोक्ष शब्दों में जता दिया है कि अपनी सुरक्षा के मसले पर ना तो किसी दबाव को आड़े आने दिया जाएगा और ना ही किसी अभाव को। बल्कि अब जबकि पाकिस्तान ने स्वीकार कर लिया है कि उसकी धरती पर 40 हजार आतंकी मौजूद हैं तो उससे भारत को पूछना चाहिये कि उनके खत्मे का उसके पास क्या प्लान है। साथ ही भारत की ओर से आतंकियो के खात्मे के लिये पाकिस्तान को सहयोग की जो औपचारिक पेशकश की गयी है उससे भी एक कदम आगे बढ़कर आतंकियों के नाश के लिये भारत को ऐसी रणनीति बनानी चाहिये जिसमें अगर पाकिस्तान सहयोगी ना भी बने तब भी उसे अमल में लाया जाये लेकिन किसी भी हालत में आतंकियों को हर्गिज छोड़ा ना जाए। कारगिल विजय दिवस के गौरव भरे क्षणों में इस एहसास को जगाने की जरूरत है कि अगर सीमा पार जाकर आतंक का नाश करने की मजबूरी सामने आ ही गयी है तो वैश्विक शांति सुनिश्चित करने के लिये उस पर अमल करने से भी परहेज ना किया जाए। लेकिन पहली प्राथमिकता यही होनी चाहिये कि पाकिस्तान को आखिरी मौका अवश्य दिया जाना चाहिये ताकि आतंक के नाश के लिये वह भी आगे आये और सहभागी बने। लेकिन इसके लिये किसी अन्य देश को आगे करने का कोई मतलब ही नहीं है क्योंकि जिसे भी इस बीच में घुसने की जगह दी जाएगी वह आतंक का नाश करने में सहभागी बनने की आड़ में अपना हित साधने का ही प्रयास करेगा। ठीक वैसे ही जैसे अमेरिका ने एफ-16 के लिये तकनीकी सहयोग देने का दरवाजा पाकिस्तान के लिये खुला रख छोड़ा है।