अवसाद और तनाव की जकड़ में चिकित्सक

(भूपेश दीक्षित)


विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2015 में एक रिपोर्ट जारी कर दुनिया को चेता दिया था कि आने वाले समय में अवसाद सबसे बड़ी मानसिक बीमारी उभरकर आने वाली है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी अपने एक सर्वे में बताया था कि भारत में चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े लगभग 80 फीसदी से अधिक डॉक्टर तनाव से ग्रसित है । किन्तु ऐसे किसी भी सर्वे या चेतावनी को अक्सर हम नजरंदाज कर देते है । हमारा ध्यान तब जाता है जब इन चेतावनियों से जुडी घटनाएं हमारे आस-पास घटित होती है और हमें स्मरण करवाती है कि इन चेतावनियों को याद रखना कितना जरुरी है। चिकित्सकों रेसिडेंट्स डॉक्टर्स में बढ़ती आत्महत्याओं की घटनाओं ने एक बार फिर से हमारा ध्यान इस विकराल समस्या की ओर खींचा है। दुर्गा, पायल, साक्षी ये केवल एक नाम ही नहीं है बल्कि चिकित्सा सेवा क्षेत्र में उभरती हुई उम्मीदों का नष्ट हो जाना है। न केवल चिकित्सा सेवा क्षेत्र बल्कि पूरे के पूरे एक परिवार और समाज की आशा-आकांक्षाओं के चिराग का बूझ जाना है।
भारत जैसे विशाल जनसँख्या वाले देश में डिप्रेशन यानी अवसाद दिन-प्रतिदिन विकराल रूप लेता जा रहा है। अनेक शारीरिक और मानसिक बीमारियाँ बढ़ती जा रही है और इन बीमारियों का इलाज करने का जिम्मा देशभर के चिकित्सकों के कन्धों पर है । भारत में एक सरकारी डॉक्टर के ऊपर लगभग 11 हजार से ज्यादा रोगियों के इलाज का जिम्मा है जो कि विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित की गयी डॉक्टर-मरीज अनुपात सीमा से दस गुना अधिक है । एक सर्वे के मुताबिक भारतीय चिकित्सक औसतन दो मिनट से भी कम परामर्श समय एक मरीज को दे पाते है। ऐसे में काम के अधिक दबाव के चलते देशभर के डॉक्टर्स तनाव और अवसाद की गिरफ्त में है। काम के इसी दबाव के कारण बहुत बार चिकित्सकों और मरीजों व उनके परिजनों के बीच कार्यस्थल पर मारपीट की घटना घटित हो जाती है । कार्यस्थलों पर काम का अधिक दबाव और तनावपूर्ण वातावरण कर्मचारियों का मानसिक स्वास्थ्य बिगाड़ सकता है इसी को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2017 में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने लोगों को जागरूक करने के लिए विश्व मानसिक दिवस की थीम 'कार्यस्थल पर मानसिक स्वास्थ्य' रखी थी । किन्तु हमने इसे भी अनदेखा-अनसुना किया।
चिकित्सकों की सेहत और सुविधाओं के प्रति सरकार की लगातार अनदेखी की वजह से चिकित्सा पेशे में काम करने वाले लोग लगातार हताशा और काम के दबाव में जिंदगी जी रहे है और बहुत बार इसी वजह से चिकित्सकों के मन में आत्महत्या की प्रवृति जन्म ले लेती है या वो जानलेवा कदम उठा लेते है। इसके साथ-साथ मेडिकल कॉलेजेस की फीस में लगातार बढ़ोतरी होना, कार्यस्थल पर साथी डॉक्टर्स या सीनियर्स द्वारा अत्यधिक काम का दबाव बनाकर प्रताड़ित करना, डॉक्टर्स की ड्यूटी के समय निर्धारित ना करना, कार्यस्थल पर अपमानित या दुर्व्यवहार करना, परीक्षाओं में फैल करने की धमकी देना, कॉलेज व होस्टल्स में सुविधाओं का अभाव होने के कारण भी चिकित्सकों में तनाव और अवसाद महामारी के तौर पर फैल रहा है और ऐसे में घोर निराशावादी वातावरण से गुजर रहा देश का चिकित्सक अपने जीवन को नष्ट करने में ही अपना विकल्प खोज रहा है जो कि बेहद ही घातक और चिंताजनक है ।
ऐसा नहीं है कि इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं है किन्तु परस्पर टूटते संवाद और सामाजिक असंवेदनशीलता ने समाधानों में जटिलता बना रखी है । यदि कोई चिकित्सक अपने मन की बात किसी से साझा करते हुए अपने तनाव को कम करने की कोशिश भी करता है तो या तो उसको गंभीरता से नहीं लिया जाता या फिर उसका उपहास बनाया जाता है। ऐसी स्थिति में पहले से टूटे हुए डॉक्टर का संबल चकनाचूर हो जाता है। सभी को परामर्श देने वाला चिकित्सक ऐसे में अपने आपको बिलकुल अकेला पाता है । कुछ चिकित्सक अपने इस अकेलेपन को दूर करने के लिए नशे का सहारा लेते है जो असल में उनकी स्थिति को और भी अधिक भयावह बना देती है।
यदि समय रहते हमने चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया और यह सब कुछ ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले समय में चिकित्सा के पुनीत क्षेत्र में अपनी सेवा देने वाला कोई आगे नहीं आएगा । हर ओर बीमारीयों का बोलबाला और विलाप के स्वर सुनाई देंगे और असंवेदनशील होते समाज को, अलग-अलग रूपों में मौत अपने आगोश में लेती चली जाएगी।