भट्ट के मामले को भटकाने की कोशिश






पिछले दिनों गुजरात के पूर्व आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को वर्ष 1990 में हिरासत में मौत के एक मामले में आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई है।   यह मामला प्रभुदास वैशनानी की हिरासत में हुई मौत से जुड़ा है। दरअसल हुआ यूं कि लालकृष्ण आडवाणी की देशव्यापी राम-रथयात्रा को बिहार की लालू यादव सरकार ने रोक दिया और आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके विरोध में 30 अक्टूबर 1990 को बुलाए गए भारत बंद के दौरान जामनगर के जमजोधपुर कस्बे में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे थे। इस संबंध में जामनगर पुलिस ने 133 लोगों को पकड़ा था जिसमें विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ता वैशनानी भी उनमें शामिल थे। संजीव भट्ट उस समय जामनगर के असिस्टेंट एसपी थे। अदालत में जब यह साबित हो गया कि संजीव भट्ट और पुलिस अधिकारियों की उनकी टीम ने लोगों को उनके घरों से निकाला था और उन्हें गिरफ्तार करने से पहले बेरहमी से उनकी पिटाई कर थी जिसके कारण आगे चल कर वैशनानी की मौत हो गई, तब उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई है। लेकिन मोदी का विरोध करनेवाले चेहरे के तौर पर पहचाने जानेवाले संजीव भट्ट के मामले को भटका कर अदालत के इंसाफ को गलत साबित करने की कोशिशें आरंभ हो गई हैं। यह बताने का प्रयास किया जा रहा है कि उन्हें राजनीतिक शिकार बनाया गया है। इसके लिये संजीव की पत्नी श्वेता भट्ट को आगे किया जा रहा है ताकि संजीव की छवि को पीड़ित के तौर पर प्रस्तुत किया जा सके। इसके लिये श्वेता को मीडिया के सामने लाकर कई बेसिरपैर की दलीलें पेश कराई गईं हैं जिसे अदालत पहले ही नकार चुकी है। मसलन (1) संजीव भट्ट की सजा सुनिश्चित करने के लिए मामले को तेजी से ट्रैक किया गया था। (2) संजीव भट्ट को अपनी पसंद के बचाव पक्ष के गवाहों को प्रस्तुत करने और उनकी जांच करने की अनुमति नहीं थी। (3) जिन दस्तावेजों के आधार पर मुकदमे का निष्कर्ष निकाला जाना था, वे संजीव भट्ट को नहीं दिए गए थे और उनके अनुसार, अभियोजन पक्ष ने अदालत के समक्ष दलील दी कि दस्तावेज नष्ट हो गए हैं। (4) अभियोजन ने केवल ३२ गवाहों की जांच की। (5) संजीव भट्ट को अभियोजन पक्ष द्वारा निर्मित किसी भी गवाह से जिरह करने का कोई अवसर नहीं दिया गया।(6) संजीव भट्ट की अनुपस्थिति में परीक्षण किया गया। (7) न्यायालय के रिकॉर्ड पर कोई चिकित्सा साक्ष्य नहीं है। इन आरोपों के आधार पर अब संजीव की बीवी को आगे रखकर वे ताकतें इस मामले को उच्च न्यायालय में ले जाने की बात कह रही हैं जिनका लक्ष्य ना सिर्फ मोदी सरकार को बल्कि पूरी न्यायपालिका को बदनाम करना है। जब तक मुकदमा चलेगा तब तक मामला चर्चा में रहेगा और तब तक यह दुष्प्रचार करने का मौका रहेगा कि मोदी सरकार किस तरह विरोधियों को तबाहो बर्बाद करने की नीति अपनाती है। जबकि सच तो यह है कि यह मुकदमा भी मोदी ने नहीं बल्कि 90 के दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल ने दर्ज कराया था। इंसाफ में देरी ही इस वजह से हुई क्योंकि संजीव के रसूख इसके आड़े आ गए जिसकी गुजरात उच्च न्यायालय ने 1996 में आलोचना करते हुए सख्ती दिखाई तब मामले की जांच आगे बढी। इसके अलावा यह आरोप भी गलत है कि संजीव भट्ट को अपनी पसंद के बचाव पक्ष के गवाहों को प्रस्तुत करने और जांच करने की अनुमति नहीं थी। सच तो यह है कि संजीव भट्ट ने उन गवाहों की एक सूची तैयार की, जिन सभी को अपने बचाव गवाह के रूप में जांचने की अनुमति दी। बाद में संजीव भट्ट ने इस संबंध में लिखित रूप से आवेदन दाखिल करके अपने स्वयं के बचाव गवाहों की जांच करने से इनकार कर दिया और ऐसे गवाहों को छोड़ने का अनुरोध किया। सभी उपलब्ध गवाह जो अभियोजन के लिए या अभियुक्त के लिए प्रासंगिक थे, सत्र न्यायालय के समक्ष परीक्षण के दौरान जांच की गई। न्यायालय के समक्ष दर्ज किए गए उनके निक्षेप न्यायालय के अभिलेख का हिस्सा हैं। इसके अलावा दस्तावेज नष्ट किये जाने का आरोप भी गलत है क्योंकि अभियोजन पक्ष ने या तो सत्र न्यायालय या किसी भी अन्य अदालत के समक्ष कभी भी विरोध नहीं किया कि इस मामले का कोई भी दस्तावेज नष्ट कर दिया गया है। यह कहना भी सही नहीं है कि संजीव भट्ट की अनुपस्थिति में मामले का अदालती परीक्षण संपन्न हुआ। बल्कि मुकदमे की हर तारीख पर, संजीव भट्ट व्यक्तिगत रूप से अदालत में उपस्थित रहते थे। यह संजीव भट्ट थे, जिन्होंने कुछ मौकों पर, अदालत से लिखित रूप में, उनकी अनुपस्थिति में आगे बढ़ने के लिए अनुरोध किया और इस तरह के अनुरोधों पर, अदालत ने उनकी अनुपस्थिति में कार्यवाही की। यह एक सामान्य प्रक्रिया है और कई मामलों में इसका पालन किया जाता है जहां आरोपी व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट पाने के लिए एक आवेदन दायर करता है। सबसे महत्वपूर्ण है कि उन सभी 133 पीड़ितों के संबंध में पर्याप्त, घिनौने और ठोस चिकित्सीय साक्ष्य हैं, जिनके साथ संजीव अति-अमानवीय क्रूरता का व्यवहार किया जिससे उनकी मौत हुई। इसकी पुष्टि पोस्टमार्टम रिपोर्ट में भी हुई और मौत से पूर्व की जांचों से भी। ऐसे में अब नए सिरे से मामले को तूल देना और राजनीतिक रंग देने का प्रयास करना यही दर्शाता है कि इस सबके पीछे कोई ऐसी ताकत है जो पूरी न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता और निष्पक्षता को बदनाम करना चाहती है। हालांकि अगर वाकई संजीव की बीवी को यह यकीन है कि उसका पति निर्दोष है और उसे निचली अदालत से पूरा इंसाफ नहीं मिला है तो उसे पूरा हक है कि वह इंसाफ के लिये ऊपरी अदालत का दरवाजा खटखटाए। लेकिन ऐसा करने से पूर्व वह मीडिया के माध्यम से उन आरोपों को आगे रख रही है जिसे निचली अदालत पहले ही खारिज कर चुकी है तब संदेह यही जगता है कि न्याय की मांग के पीछे इमानदारी नहीं बल्कि कुछ साजिश या राजनीतिक योजना है जिसका मकसद इंसाफ पाना नहीं बल्कि कुछ और ही है। ऐसे में आवश्यक है कि इस बात का पता लगाया जाए कि आखिर श्वेता को ऊपरी अदालत का रास्ता दिखाने से पहले सड़क पर रायता फैलाने के लिये उकसाने की कोशिश कौन और क्यों कर रहा है।