बिना खिवैया की नैया




कांग्रेस की मौजूदा हालत को सीमित शब्दों में यही कहा जा सकता है कि यह बिन खिवैया की नैया बन कर रह गयी है। सियासत के समुद्र में इसकी ना तो कोई दिशा दिख रही है और ना ही इसका कोई भविष्य दिख रहा है। हालांकि लगातार दो लोकसभा चुनावों में करारी शिकस्त झेलने के बाद भी कांग्रेस ही देश की दूसरी सबसे ताकतवर पार्टी है और स्वाभाविक विपक्ष भी है। लेकिन इसकी जनस्वीकार्यता में मामूली इजाफे के बावजूद जिस तरह से इसके शीर्ष नेतृत्व ने अपिपक्वता, दिशाहीनता और हताशा का परिचय दिया है उसी का नतीजा है कि इसकी रही सही साख और मजबूती भी बिखरती जा रही है। कर्नाटक से लेकर राजस्थान और मध्य प्रदेश से लेकर दिल्ली तक में जिस कदर अराजकता, अनुशासनहीनता और निरंकुशता का माहौल दिख रहा है  उसकी इकलौती वजह यही समझ आ रही है कि किसी पर किसी का कोई नियंत्रण ही नहीं है। कायदे से तो जब राहुल गांधी ने पार्टी के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया तो उनके द्वारा बनाए गए पदाधिकारी भी स्वतः ही तत्काल प्रभाव से पैदल हो जाने चाहिये। लेकिन राहुल भले ही अध्यक्ष पद की जिम्मेवारियों से खुद को अलग कर चुके हों लेकिन पार्टी के अन्य पदाधिकारी संवैधानिक तौर पर पदहीन हो जाने के बावजूद अपने कार्यभार को यथावत निभाना जारी रखा हुआ है। दूसरी ओर प्रदेश के संगठनों में केन्द्र के अनुशासन और व्यवस्था के अनुपालन की जो व्यवस्था है उस पर भी निरंकुशता का असर साफ तौर पर देखा जा रहा है। यह बात अलग है कि कर्नाटक और गोवा में पार्टी के विधायकों ने थोक के भाव में इस्तीफा देकर प्रदेश इकाई को सड़क पर ला दिया हो लेकिन मध्य प्रदेश और राजस्थान सरीखे सूबों में भी अंदरूनी स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। वहां भी संगठन में विद्रोह की चिंगारी अंदरखाने तेजी से सुलग रही है और यह कब दावानल का स्वरूप लेकर सूबे में पार्टी की सत्ता को लीलने के लिये आतुर हो जाएगी इसके बारे में दावे से कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। तभी तो जहां एक ओर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ ने अपने विधायकों को एकजुट रखने के लिये समन्वय की बैठकों का सिलसिला शुरू कर दिया है वहीं दूसरी ओर सूबे की सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत रखने के लिये राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भी नाकों चने चबाने पड़ रहे हैं। वह तो गनीमत है कि पार्टी के शीर्ष नेतृत्व के सहारे के बिना अपने दम पर बहुमत की सरकार बनानेवाले पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर को विधायकों का पूरा विश्वास हासिल है वर्ना केबिनेट से इस्तीफा देकर नवजोत सिंह सिद्धू ने जो बागी तेवर दिखाए हैं और उनको अनुशासन के दायरे का पाठ पढ़ाने की राष्ट्रीय नेतृत्व की ओर से कोई पहल नहीं हुई है उससे इतना तो साफ है कि पंजाब में भी पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व की कहीं कोई पकड़ नहीं बची है। आलम यह है कि जिसे जहां मौका मिल रहा है वह वहीं अपनी सियासी पकड़ मजबूत करने के लिये निरंकुश होकर काम कर रहा है और एक दूसरे को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। वर्ना राहुल के निर्देश पर मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष के पद से इस्तीफा देनेवाले मिलिंद देवड़ा के खिलाफ खुले तौर पर बगावती बयानबाजी करनेवाले संजय निरूपम की इतनी हिम्मत कैसे हो सकती थी कि वह खुले तौर पर देवड़ा के त्यागप़ को दिखावा, सौदेबाजी और ब्लैकमंलिंग की कोशिश करार देने की हिम्मत कर सकें।  लेकिन सिद्धू व निरूपम सरीखे लोग अगर खुले तौर पर पार्टी के हितों व छवि को नुकसान पहुंचानेवाले कदम उठाने से नहीं हिचक रहे हैं तो इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि इन्हें बेहतर मालूम है कि इन पर लगाम लगाने वाला या इनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई करनेवाला कोई है ही नहीं। ऐसी ही स्थिति दिल्ली में भी दिखाई पड़ रही है जहां प्रदेश अध्यक्ष शीला दीक्षित और प्रदेश के प्रभारी महासचिव के बीच जारी वर्चस्व की जंग ने ऐसा स्वरूप ले लिया कि संगठन के स्थानीय नेताओं व कार्यकर्ताओं को यह समझना मुश्किल हो चला है कि इन दोनों में से किसके आदेश को मानना उचित होगा। आलम यह है कि शीला ने सूबे की सभी ब्लाॅक समितियां भंग कर दीं तो चाको ने उन समितियों को बहाल करने का फरमान जारी कर दिया। एक ओर चाको के आदेश से वे समितियां भी सक्रिय हैं और दूसरी ओर शीला ने समितियों के नए सिरे से गठन की प्रक्रिया भी आरंभ कर दी है। स्वाभाविक है कि जब शीला द्वारा नए सिरे से गठित समितियां अस्तित्व में आएंगी तो हर ब्लाॅक में दोनों नेताओं के नेतृत्व वाली दो अलग समितियां सक्रिय दिखाई देंगी जिसमें किसे कांग्रेस की असली समिति का दर्जा मिलेगा इसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार प्रदेश के तीनों कार्यकारी अध्यक्षों हारून यूसुफ, देवेन्द्र यादव और राजेश लिलोठियों के बीच कार्यों के वितरण को लेकर भी बवाल खड़ा हो गया है। एक ओर तो लिलाठिया ने पहले ही राहुल के निर्देशों का अनुसरण करते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे दिया है जबकि दूसरी ओर चाको ने उनको ही सूबे की तमाम बड़ी जिम्मेवारियां सौंप दी हैं। वह भी इसलिये ताकि शीला के विश्वस्त बताए जानेवाले हारून और देवेन्द्र को किनारे लगाया जा सके। तभी तो चाको ने हारून को विश्वविद्यालय चुनाव और देवेन्द्र को एनएसयूआई की जिम्मेवारी देकर किनारे कर दिया है जबकि तीनों नगर निगम व यूथ कांग्रेस से लेकर सभी प्रकोष्ठों की जिम्मेवारी भी लिलोठिया को सौंप दी है। निश्चित तौर पर ऐसी स्थिति पार्टी के दो फाड़ होने का ही इशारा कर रही है जिसमें प्रदेश के सभी 280 ब्लाॅक कमेटियों से लेकर निगम व प्रदेश स्तर तक में शीला द्वारा गठित इकाई अलग होगी और चाको द्वारा संरक्षित इकाई अलग। लेकिन ऐसी विषम परिस्थितियों के बावजूद केन्द्रीय इकाई के संचालकों के कानों पर जूं तक रेंगती हुई महसूस नहीं हो रही है। ऐसी अराजकता के बावजूद अगर जलते रोम के किनारे बांसुरी बजाते नीरो की तरह गांधी परिवार के सदस्य कांग्रेस को संगठित कर एक स्वतंत्र दिशा की ओर ले जानेवाले नेतृत्व के हाथों में सौंपने की पहल करने से परहेज बरत रहे हैं तो इसका मतलब यही है कि या तो अब वे कांग्रेस के खाक में मिल जाने के बाद ही उस राख से नवनिर्माण की योजना बना रहे हैं या फिर उनका पार्टी से इतना मोहभंग हो चुका है कि अब उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता, भले ही भाड़ में जाए कांग्रेस।