कांग्रेस में भारी भगदड़




कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त किस कदर भारी पड़ रही है इसकी तस्वीर राष्ट्रीय स्तर पर भी दिख रही है और प्रादेशिक स्तर पर भी। आलम यह है कि बिना खिवैया की नैया बनकर यह पार्टी देश के सियासी समुद्र में भटक रही है जिस पर सवार लोगों को यह समझ ही नहीं आ रहा है कि आखिर इस नाव को किधर की ओर मोड़ा जाए ताकि किनारा दिखाई दे। नतीजन संगठन में भारी उहापोह, असमंजस और भगदड़ की स्थिति उत्पन्न हो गई है। सच तो यह है कि किसी भी पार्टी के लिये मजबूत, सशक्त और निर्णायक शीर्ष नेतृत्व क्यों और कितना आवश्यक ही नहीं नहीं बल्कि अनिवार्य होता है यह कांग्रेस की मौजूदा स्थिति को देखकर आसानी से समझा जा सकता है। चुनावी हार की जिम्मेवारी लेते हुए राहुल गांधी ने खुद भी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद से इस्तीफा दे दिया, सभी पदाधिकारियों को भी अपने पद से त्यागपत्र देने का निर्देश दे दिया और निर्णायक तौर पर यह भी बता दिया कि अब कांग्रेस को अपना संचालक गांधी-नेहरू परिवार से बाहर के व्यक्ति को ही बनाना होगा। राहुल के पद छोड़ने के बाद उनके करीबियों और विश्वासपात्रों ने भी इस्तीफा दे दिया और उनके निर्देश के मुताबिक नये अध्यक्ष की नियुक्ति की राहें भी तलाशी जा रही हैं। हालांकि यह बात दीगर है कि किसी एक को आगे करके उसका हाथ मजबूत करने के प्रस्ताव पर अमल करने की राह अभी तक पार्टी नहीं तलाश पाई है और इस कार्ययोजना को अमली जामा पहनाने को लेकर अभी किसी भी स्तर पर पार्टी में आमसहमति का माहौल नहीं बन पाया है। लेकिन राहुल ने नयी व्यवस्था होने तक कार्यवाहक के तौर पर अध्यक्षीय जिम्मेवारी निभाने और अपने उत्तराधिकारी के चयन में पार्टी को किसी भी तरह का सहयोग करने से साफ तौर पर इनकार कर दिया है। नतीजन अब दिनोंदिन पार्टी में असमंजस, उहापोह, अराजकता और दिशाहीनता का माहौल गहराता जा रहा है। इसमें कांग्रेस की मजबूती में ही अपना भविष्य देखनेवालों ने तो अभी मजबूती से पार्टी का दामन थामा हुआ है लेकिन सिर्फ सत्ता की सियासत करने के लिये कांग्रेस का हाथ थामकर आगे बढ़ने वालों में अब पार्टी से अलग होने की होड़ सी मच गयी है। हालांकि अपने इतिहास के सबसे कठिन और बुरे दौर से गुजर रही कांग्रेस का हाथ झटकने की शुरूआत इसके सोशल मीडिया विभाग की कमान संभालनेवाली दिव्या स्पंदना ने ही की थी लेकिन अब केन्द्रीय नेतृत्व के दिशाहीन होने और संगठन पर शीर्ष नेताओं का इकबाल कमजोर पड़ने का नतीजा है कि सूबाई स्तर पर भी भगदड़ मचनी शुरू हो गयी है। इसकी शुरूआत हुई कर्नाटक के सियासी नाटक से जिसमें कांग्रेस के विधायकों द्वारा त्यागपत्र दिये जाने का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। हालांकि सच तो यह है कि कुमारस्वामी सरकार का स्थायित्व उसी दिन से सवालों के घेरे में है जिस दिन 78 सीटों वाली कांग्रेस ने चुनावी हार को स्वीकार करने से इनकार करते हुए 104 सीटें जीतकर 113 सीटों के बहुमत के आंकड़े से महज चंद कदमों की दूरी पर खड़ी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये महज 37 सीटें जीतनेवाले जद-एस को बिना शर्त सरकार बनाने के लिये अपना समर्थन देने का ऐलान कर दिया। वह भी तक जबकि विधानसभा चुनाव में भाजपा विरोधी वोटों में सेंध लगाकर जद-एस ने ही कांग्रेस की दोबारा सूबे की सत्ता में वापसी के अरमानों पर पानी फेरा था। लिहाजा सूबाई समीकरणों के लिहाज से अपेक्षित था कि सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने के जनादेश का सम्मान करते हुए कांग्रेस चुपचाप पिछली सीट पर बैठ जाती और बहुमत के आंकड़े से महज नौ सीटें कम पानेवाली भाजपा को गठबंधन की सरकार चलाने का मौका देती। वैसे भी अगर जद-एस और भाजपा का गठजोड़ बनता तो उसे इस वजह से सार्थक कहा जा सकता था क्योंकि दोनों दलों ने भले ही चुनाव पूर्व गठजोड़ नहीं बनाया था लेकिन दोनों ने कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकने का लक्ष्य सामने रखकर ही चुनाव लड़ा था। हालांकि एक अन्य विकल्प यह भी था कि चुंकि जनता ने भाजपा और कांग्रेस में से किसी को भी पूर्ण बहुमत नहीं दिया था और सत्ता की चाबी जद-एस को सौंपी थी लिहाजा आदर्श स्थिति यह भी हो सकती थी कि दोनों ही पार्टियां इस बात का प्रयास करतीं कि जद-एस का समर्थन हासिल करके बहुमत का आंकड़ा जुटा कर अपनी सरकार बनाई जाये। लेकिन चुनावी हार के बाद दूसरे पायदान पर खड़ी पार्टी अगर सिर्फ 15 फीसदी सीटें जीतने वाले दल की सरकार बनवा दे तो उसके स्थायित्व पर शुरूआत से ही तलवार लटकना स्वाभाविक ही है। लेकिन सूबाई स्तर पर कांग्रेस और जद-एस का बेमेल गठजोड़ भले ही अप्राकृतिक तौर पर बना हो मगर राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से गैरभाजपाई ताकतों को एक मंच पर लाने के लिये अपने निजी हितों से समझौता करने के अलावा कांग्रेस के पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं था। लिहाजा जमीनी अपेक्षाओं और अपने कार्यकर्ताओं के भावनाओं की अनदेखी करके दूरगामी लक्ष्य को ध्यान में रखकर कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने सीधा हस्तक्षेप करते हुए बिना शर्त कुमारस्वामी की सरकार बनवाने का फरमान जारी कर दिया। इस तरह सत्ता की रेल चलाने के लिये जद-एस के बराबर में जाकर कांग्रेस बिछ तो गई लेकिन दो समानांतर पटरियों की तरह जमीनी स्तर पर उनमें दूरी बदस्तूर बनी रही। ना तो प्रदेश के कांग्रेसी अपने ही समर्थन से चल रही सरकार से संतुष्ट हो सके और ना ही जद-एस को हैसियत से अधिक मिली मलाई हजम हो सकी। नतीजन जब तक कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व का संगठन पर दबदबा रहा तब तक तो सूबाई नेताओं के पास मन मसोस कर कुमारस्वामी को अपना समर्थन देने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं था लेकिन लोकसभा चुनाव के बाद कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर नेतृत्व को लेकर पनपे संकट ने स्थानीय नेतृत्व को अपने मनमुताबिक राजनीति करने का मौका दे दिया जिसके नतीजे में अब कर्नाटक में कांग्रेस के हाथों से सत्ता फिसलने की औपचारिक घोषणा ही बाकी है। कर्नाटक के बाद अब गोवा से भी कांग्रेस के लिये बुरी खबर आ गई है जहां उसके 15 में से 10 या दो-तिहाई विधायकों ने भाजपा का दामन थाम लिया है। वास्तव में देखें तो यह नतीजा है केन्द्रीय नेतृत्व की नदारदगी का जिसका असर अभी किस-किस स्तर पर पार्टी को कितना कमजोर करेगा इसका सिर्फ इंतजार ही किया जा सकता है।