कौन चलने नहीं देता राज्यसभा को












(आर.के. सिन्हा)


दुर्भाग्यवश संसद के उच्च सदन राज्यसभा का स्थायी चरित्र होता जा रहा है हंगामाशोर-शराबा और व्यवस्था के प्रश्न के नाम पर अव्यवस्था पैदा करना। राज्यसभा में सारगर्भित चर्चाओं को नितांत अभाव मात्र ही अब देखने में आ रहा है। जाहिर है कि इस निराशाजनक स्थिति से सबसे अधिक आहत राज्यसभा के वर्तमान सभापति एवं भारत के उप-राष्ट्रपति एम वेंकैया नायडू स्वयं दिखते हैं।


इस संदर्भ में उपराष्ट्रपति एवं राज्य सभा के सभापति वैंकया नायडू जी का पिछले शुक्रवार 21 जून को राज्यसभा के सदस्यों को किया गया संबोधन उनकी पीड़ा को व्यक्त करता है। मैं उस समय राज्य सभा में उपस्थित था और मैंने सभापति महोदय के भाषण को बड़े ध्यान से सुना। उनके एक-एक शब्द से उनकी आंतरिक पीड़ा झलक रही थी।


उन्होंने कहा -''माननीय सदस्यों आपजनता के प्रतिनिधि हैं और देश की जनता ने आप पर विश्वास करके ही आपको सदन में भेजा है। किन्तु, जब आप इस महान सदन में प्रवेश करते हैं तो आपको यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि आपको करोड़ों आंखें देख रहीं हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद आपको एक बार और मौका मिला है कि जनता के आशाओं के अनुरूप आप देश के ज्वलंत मुददों पर वाद-विवाद और संवाद करेंज्वलंत समस्याओं का समाधान खोजेंसहमति बनायें और ऐसे कानूनों का निर्माण करें जो जनता की जीवन दशा को बेहतर बना सकें।'' मेरी सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि बार-बार राज्य सभा में व्यवधान और हंगामों के कारण जनता में उच्च सदन के प्रति एक नकारात्मक धारणा का निर्माण हो रहा है जो लोकतंत्र के लिए घातक है। प्रश्न काल के एक घंटे का मतलब होता है लगभग 45 सदस्यों द्वारा महत्वपूर्ण विषयों पर सरकार के द्वारा जवाब प्राप्त करने का और एक शून्यकाल के संपन्न नहीं होने से कम से कम पन्द्रह सदस्यों को तत्कालीन सामाजिक समस्याओं के प्रति सदन और सरकार का ध्यान खींचने के अवसर से वंचित हो जाना पड़ता है। हमें यह गंभीरतापूर्वक सोचना पडेगा कि आख़िरकार हम चाहते क्या हैंजनता की समस्याओं के प्रति काम करने वाला सदन या बिना किसी बात के हंगामेदार सदन। हमने यह स्थिति पैदा कर दी है कि जनता अब यह सोचती है कि जब उच्च सदन में ही यह स्थिति है तो लोकतंत्र के ऊपर सचमुच में बड़ा भारी खतरा है।


सभापति ने आगे बताया कि- अनेकों विधेयक लोकसभा में बहस के बाद पारित हो जाते हैं परन्तु, राज्य सभा में बिना किसी कारण के अटक जाते हैं और वर्षों तक लंबित पड़े रहते हैं । वे लोकसभा की पांच वर्ष की अवधि के समाप्त होते ही लैप्स भी हो जाते हैं और उन्हें पुनः लोकसभा में पेश करना पड़ता है, बहस होती है और वहां से पारित कराकर राज्यसभा में भेजना पडता है और यही प्रक्रिया वर्षों-वर्षों तक चलती रहती है। अनेकों विधेयक तो राज्य सभा में दशकों से लंबित पड़े हैं। लेकिन, संविधान की धारा 107 के अंतर्गत कोई विधेयक लोकसभा पारित कर देती है और लोकसभा की पांच वर्षों की अवधि में राज्यसभा उसे पारित नहीं कर पाती है तो वह विधेयक लैप्स हो जाता है और लोकसभा को उस पर पुर्नविचार करना पडता है। पिछली सोलहवीं लोकसभा द्वारा पारित 22महत्वपूर्ण विधेयक राज्य सभा  पांच वर्षों में भी पारित नहीं कर सकी और उसके लैप्स हो जाने के कारण यह फिर लोकसभा के विचारार्थ वापस चली गयी। अब लोकसभा 22 विधेयकों पर पुनर्विचार कर पारित भी करे तो कम से कम दो-तीन वर्ष तो लग ही जायेंगे और करोडो की सरकारी धनराशि भी बर्वाद हो जायेगी। क्या हमलोगों को इस गंभीर विषय पर विचार नहीं करना चाहिए। जो महत्वपूर्ण विधेयक लोकसभा से पारित होने के बाद भी राज्य सभा में लंबित रहने के कारण लैप्स हो गये उनमें-'' भूमि अधिग्रहण विधेयक 2015, फैक्टी संशोधन विधेयक 2016, मोटर वाहन संशोधन विधेयक 2017, ग्राहक संरक्षण विधेयक 2018, और कम्पनी संशोधन विधेयक 2019, अनियमित बचत योजनाओं पर प्रतिबंध लगाने वाला विधेयक 2019, आधार एवं संबंधित कानूनों में संशोधन विधेयक 2019, तीन तलाक विधेयक 2017 एवं 2018बालक बालिकाओं के अवैध खरीद ब्रिकी के संरक्षण प्रतिबंध और पुर्नवास विधेयक 2018, और नागरिकता संशोधन विधेयक 2019, शामिल हैं किन्तु, यह सूची पूरी नहीं है।


सभापति महोदय ने यह भी कहा कि:-राज्यसभा के 248वें सत्र की समाप्ति के दिन राज्य सभा में 55 विधेयक लंबित थे जिसमें 22विधेयक लैप्स हो गये । उनको घटाने के बाद भी अभी 33 विधेयक लंबित हैं। तीन विधेयक तो 20 वर्षों से लंबित हैं । 6 विधेयक10 से 20 वर्षों की अवधि से लंबित है और 14 विधेयक 5 से 10 वर्षों से लंबित हैं। 33 में से मात्र 10 विधेयक ही ऐसे हैं जो 5वर्षों से कम से लंबित हैं ।


उपराष्ट्रपति महोदय ने पूछा कि क्या माननीय सदस्यों को पता है कि महत्वपूर्ण   इंडियन मेडिकल काउंसिल संशोधन विधेयक,1987 पिछले 32 वर्षों से लंबित है? क्या यह सुखद स्थिति मानी जायेगी? इसी प्रकार 79वां संविधान संशोधन विधोयक 1992,नगरपालिका क्षेत्रो में निर्धारित विस्तार का संशोधन विधेयक 2001, किसानों से संबंधित बीज विधेयक 2004, कीटनाशक संशोधन2011, खान संशोधन विधेयक 2011, एक राज्य से दूसरे राज्य में जाने वाले श्रमिकों के कानून में संशोधन विधेयक 2011, महिलाओं के साथ अभद्रता संशोधन विधेयक 2012, बिल्डिंग एवं अन्य निर्माण कामगारों से संबंधित संशोधन विधेयक 2013, वक्फ  संपत्ति पर अवैध कब्जा संशोधन विधेयक 2014 आदि ऐसे महत्वपूर्ण विधेयक हैं जो अभी राज्यसभा में लंबित हैं।


सभापति महोदय ने कहा कि हम सभी इस जिम्मेदारी से बच नहीं सकते कि इस प्रक्रिया में कहीं न कहीं हमारा योगदान है और हमें गंभीरता से सोचना होगा कि एक सार्थक बहस और सहमति ही इस समस्या का निदान है। हमें वाद-विवाद और संवाद से सहमति ढूँढना है, न कि असहमति। आज देश की आबादी में 65 प्रतिशत, 35 वर्ष से कम नवयुवक-नवयुवतियों की है। हमें इस आबादी की संरचना  को ध्यान में रखते नवयुवक-नवयुवतियों को विकास की गति पर खरा उतरना  होगा। यदि हम ऐसा कर पायेंगे तभी हम राज्यसभा जिसे उच्च सदन भी कहा जाता है उसकी प्रतिष्ठा को कायम रख सकेंगे और अपने सार्थक योगदान को सिद्ध कर पायेंगे।


विधायिका और इससे जुड़ी संस्थाओं की सार्थकता पर ही हर तरफ से सवाल उठने लगे हैं। श्री नायडू की चिंता से वे सभी सांसद अपने को जोड़कर जरूर ही आहात होते होंगे जो राज्य सभा में किसी विधेयक पर बहस के लिए पूरी तैयारी के साथ पहुंचते हैंपर वहां पर तो बहस की बजाय हंगामा ही हो रहा होता है। उन दुखी सांसदों में मैं भी एक हूँ। पिछले पांच वर्षों तक मैंने भी इस अवसाद को भोगा है। सदन को बार-बार बिना वजह स्थगित करना पड़ता है। जब सदन चलेगा ही नहीं तो वहां पर  कामकाज कैसे होगा? सच बात तो यह है कि  हंगामा करने वाले सदस्यों को अपने दल के नेताओं से हरी झंडी मिली होती है। हरी झंडी इस बात की मिली होती है कि वे सदन में नारेबाजी करते रहे। कामकाज न होने दें । सरकार के सभी सार्थक प्रयासों का विरोध करें। बहुत बार तो यहां तक देखने में आता है कि  किसी दल के नेता की मौजदूगी में ही उसके कुछ सदस्य सदन की कार्यवाही में हंगामा कर रहे होते हैं और नेता भी मौन बैठे मुस्कराते रहते हैं। बहुत साफ है कि ये सब उन नेताओं के इशारों पर  हो रहा होता है। हालांकि ये नेता बार-बार कहते तो अवश्य हैं कि सदन की कार्यवाही नियनित रूप  होनी चाहिए।  जरा देख लीजिए इनके दोहरे मापदंड। मुझे जब विपक्ष के समझदार और विद्वान सदस्य सेन्ट्रल हॉल में हंगामें के बारे बाद सदन स्थगित हों पर मिलते हैं, तो साथ बैठकर हम चाय पिटे है और गप्पें भी लगते हैं। उस वक्त विपक्षी सांसद मित्र अपनी व्यथा सुना हैं। दिल और दिमाग से न चाहते हुए भी उन्हें हंगामा करना पड़ता है, यह उनकी मज़बूरी है क्योंकि, उनके आलाकमान का यही आदेश है। कबतक चलेगा यह?


 स्थिति जब यह है कि अब देश की आम जनता में यह भावना तेजी से घर करती जा रही है कि संसद में कायदे से संविधान के अनुरूप कुछ होता ही नहीं। वहां पर तो सदस्य मात्र शोर-शराबा करने के लिए जाते हैं। मतलब तो यही हुआ न कि कुछ सदस्यों के कारण ही सारी संसद की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े हो रहे हैं। जनता का विश्वास संसद की प्रक्रिया से उठता जा रहा है। इन हंगामा करने वालों को देश अब तो सीधे टीवी पर भी देखता है। पर ये ऐसे महारथी हैं जो सुधरने का नाम लेने को तैयार ही नहीं।


श्री नायडू ने  देश के आम जन में फैलती इस सोच के प्रति आगाह किया और सही ही कहा कि ''निरर्थक विधाई निकायों के कारण लोकतंत्र ही खतरे में है।" निश्चित रूप से  सांसदों को अपनी सोच और कार्यप्रणाली पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। मौजूदा व्यवस्था स्थायी रूप तो जारी नहीं रह सकती। इसमें आमूलचूल परिवर्तन तो करने ही होंगे। बेहतर बदलाव की शुरूआत तुरंत होनी चाहिए। दरअसल सदन में बार-बार होने वाले हंगामे के कारण समय तो बर्बाद हो ही रहा है। सदन की उत्पादकता तो घट ही रही है। इस कारण जरूरी विधेयक लंबित रह जाते हैं तथा कुछ विधेयक लोकसभा के भंग होने के साथ ही समाप्त हो जाते हैं।


उनकी प्रक्रिया फिर से शुरू करनी होती है। लोकसभा से पहले से ही पारित विधेयक को पुन: नई लोकसभा में पेश करना होता है। उसपर बहस पुन: राज्यसभा में भेजना होता है । इसे समय और धन की बर्बादी नहीं तो और क्या कहेंगे।  दरअसल सदन में हंगामों करने वाले सदस्यों को यह तो सोचना ही चाहिए कि उनके हंगामेदार व्यवहार के कारण देश के कर दाताओं का धन कितनी बड़ी मात्रा में धन की बर्बादी हो रही है। सदन चलाने में बहुत ही भारी- भरकम खर्चा आता है। विपक्षी दल यह समझें कि उनका लक्ष्य सरकार के साथ हर विधेयक पर हुज्जत करना और विधेयक को गिराना नहीं, सरकारी कामकाज पर निगाह रखना है । पर वे तो इस तरह से पेश आते हैं मानो कि उनका मुकाबला किसी शत्रु देश से हो । विपक्ष को सिर्फ हंगामा करके यह नहीं मान लेना चाहिए कि उसके दायित्वों की पूर्ति हो गई। विगत डेढ़-दो दशकों से संसद में व्यवधान डालने की  मानसिकता बढ़ती ही जा रही है।


आपको याद होगा राज्यसभा के पिछले कुछ सत्रो के दौरान राफेल विमान सौदाकावेरी डेल्टा के किसानों की समस्याओं और आंध्रप्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने की मांग वगैरह के सवालों पर भारी हंगामा हुआ। इस वजह से सदन की कार्यवाही बार-बार स्थगित हुई। उच्च सदन में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने राफेल विमान सौदे का मुद्दा उठाया और सरकार पर उच्चतम न्यायालय और संसद को गुमराह करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि पूरा देश सच जानना चाहता है। आजाद ने कहा ''हम कई मुद्दों पर चर्चा करना चाहते हैं। कार्य मंत्रणा समिति में सहमति भी बनी थी। हमने विशेषाधिकार हनन का नोटिस भी दिया है।''राफेल का मुद्दा लोकसभा चुनाव के दौरान भी कांग्रेस ने पूरी ताकत के साथ उठाया। पर लोकसभा चुनाव के बाद न तो कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी और न ही आजाद  साहब ने इस मसले को फिर से उठाने की हिम्मत की है । न ही सदन में गलत बयानी के लिए माफ़ी मांगी है । तो साफ है कि राफेल के नाम पर विपक्षी दलों द्वारा जनता को गुमराह करने की सियासत होती रही और संसद के कामकाज को प्रभावित किया जाता रहा। यह कहां तक वाजिब है? बड़ा सवाल यह  है कि जिस मुद्दे को इतने जोर-शोर से उठाया जा रहा था अब उस पर मौन क्यों?


हंगामें की स्थितियों में राज्य सभा के सभापति वैकेया नायडू ने हमेशा बड़ी ही शालीनता से सदस्यों को सदन की गरिमा को बनाए रखने की अपील की है । पर कुछ सदस्य तो अभी भी इसे मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं।  वे तो स्कूल के बच्चों से भी बद्तर हैं। क्या आप मानेंगे कि इस बार नायडू जी जब सदन के दिवंगत सदस्यों को श्रद्धांजलि दे रहे थे तब भी कुछ माननीय सदस्य टोकाटाकी करने से बाज नहीं आ रहे थे। हालांकि बाद में नायडू की अपील के बाद स्थिति सामान्य हुई।


अब ये देखने वाली बात है कि नायडू की सांसदों से इस सत्र से नयी अनुकरणीय शुरुआत करने की अपील का कितना सकारात्मक असर होता है।  उन्होंने कहा, ''हमारी संसद को 2022 तक एक ऐसे नये भारत के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है जिस पर हम सभी गर्व कर सकें।"


 एक बार  अरुण जेटली ने भी महत्वपूर्ण बात कही थी कि क्या राज्य सभा निचले सदन से पारित विधेयकों को रोक सकता है? पर अफसोस कि उन्होंने जिस बिन्दु की तरफ इशारा किया था उस पर पर्याप्त बहस नहीं हुई। जो कुछ  साल पहले जेटली ने कहा था लगभग वही नायडू जी भी कह रहे हैं। लोकतंत्र का सीधा सा अर्थ होता है वाद,विवाद,संवाद।  जम्हूरिहत में चर्चा होनी ही बंद हो जाएगी तो फिर उस लोकतंत्र का मतलब क्या बचेगा। इस सवाल पर देश को सोचना होगा। हांसत्तापक्ष को भी उन विपक्षी दलों और उन सदस्यों के विचारों को गंभीरता से सुनना होगा जो देश हित में सदन में अपनी बात रखते हैं। यानी संसद के उच्च सदन की गरिमा तो सभी के संयुक्त प्रयासों से ही बहाल होगा।


 


(लेखक राज्य सभा सदस्य हैं)