लोक कल्याण की बेमानी होती अवधारणा




भारत का सामाजिक और आर्थिक ताना-बाना ऐसा नहीं है कि सरकार के संरक्षण के बिना आम लोग सहूलियत की जिन्दगी बसर कर सकें। वजह है संसाधनों का असंतुलित व असामान्य वितरण। एक तरफ दुनिया के सबसे अधिक अरबपति नागरिकों वाला देश बनने की दिशा में भारत काफी तेजी से अग्रसर हो रहा है वहीं दूसरी ओर दुनिया के सबसे अधिक गरीब भी भारत में ही निवास करते हैं। एक तरफ भारत ने मंगल पर तिरंगा लहरा दिया है और चांद पर इंसान को पहुंचाने की दिशा आगे बढ़ रहा है वहीं दूसरी ओर यहां की सड़कों पर चलनेवाली गाड़ियों के पहिये के लिये मानक भी तय नहीं हो पाया है। एक ओर सबसे अधिक सोने का आयात और खपत भी भारत में ही होता है और दूसरी ओर भूख से मौत और किसानों की आत्महत्या के मामले भी अक्सर सामने आते रहते हैं। एक ओर देश के 98 फीसदी संसाधनों पर तकरीबन दो फीसदी लोगों का कब्जा है जबकि दूसरी ओर भारत सरकार के आंकड़े बताते हैं कि देश की कुल 22 प्रतिशत आबादी मूलभूत सुविधाओं से भी वंचित है। इसमें भी दुखद तथ्य यह है कि समाज में फैली इस असमानता को दूर करने की दिशा में आगे बढ़ने का सिर्फ दिखावा ही किया जाता है। वर्ना इस दिशा में ईमानदारी से प्रयास किया होता तो असमानता को दूर करने के मामले में दुनिया के अन्य देशों की तुलना में भारत का प्रदर्शन इस हद तक खराब नहीं होता कि ऑक्सफैम और डेवलपमेंट फाइनेंस इंटरनेशनल द्वारा तैयार असमानता कम करने की प्रतिबद्धता के सूचकांक में 157 देशों की सूची में भारत को 147वें पायदान पर शर्मनाक स्थिति में खड़ा होना पड़ता। इस रिपोर्ट में अलग अलग क्षेत्रों में भारत को दी गई रैंकिंग की बात की जाए, तो स्वास्थ्य, सेवा, शिक्षा और सामाजिक संरक्षण पर खर्च के मामले में भारत 151वें, श्रम अधिकारों और मजदूरी के मामले में 141वें स्थान पर दिखाई पड़ता है जबकि सरकार द्वारा टैक्स वसूली के मामले में 50वें स्थान पर होना यही दर्शा रहा है कि कर तो सबसे एक बराबर ही वसूला जा रहा है लेकिन उसका वितरण सही तरीके से नहीं हो रहा। आंकड़े इस बात की भी तस्दीक कर रहे हैं कि पिछले तीन दशक से देश के 10 प्रतिशत लोगों की आय और सम्पत्ति में अकूत इजाफा हुआ है, जबकि शेष 90 प्रतिशत लोगों की आय में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है। इसमें भी 90 प्रतिशत में भी नीचे के 50 प्रतिशत लोगों की हालत दिन-ब-दिन खराब ही होती जा रही है। रिपोर्ट की मानें तो साल 2017 के जो आंकड़े उपलब्ध कराए गए हैं उसमें साफ तौर पर यह दर्ज कि उस साल एक फीसदी लोगों ने 72 फीसदी संपत्तियां हथिया ली थीं और ताजा स्थिति यह है कि देश के शीर्ष 0.1 प्रतिशत सबसे अमीर लोगों की कुल संपदा बढ़कर निचले 50 प्रतिशत लोगों की कुल संपदा से अधिक हो गई है। ऐसी सूरत में अगर आम लोगों को सरकार से संरक्षण ना मिले, सरकार की ओर से लोक कल्याणकारी योजनाओं को मजबूती ना दी जाए और सिर्फ हर मामले में निजी क्षेत्र के हितों को ही आगे रखने की पहल की जाए तो आम लोगों की जिन्दगी किस कदर दुश्वार हो सकती है इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। यह बात शायद ही किसी को अलग से बताने की जरूरत हो कि निजी क्षेत्र का मकसद होता है मुनाफा कमाना और आम लोगों के हितों को प्राथमिकता देने की उसकी अव्वल तो सोच ही नहीं होती है और अगर ऐसा कुछ किया भी जाता है तो उसका मकसद टैक्स में छूट हासिल करना ही होता है। जबकि लोगों के हितों का संरक्षण सरकारी संस्थानों द्वारा ही होता रहा है। लिहाजा सरकारी संस्थाओं को अगर मजबूत नहीं रखा जाये तो निजी क्षेत्र आम लोगों का खून चूसने से भी शायद ही गुरेज करें। सरकारी संस्थानों की कमजोरी से निजी क्षेत्र किस कदर अमानवीयता की हद तक जाकर मुनाफा कूटने से परहेज नहीं बरतते इसकी झलक के तौर पर पढ़ाई और दवाई के क्षेत्र में जारी अनियंत्रित लूट को खुली आंखों से देखा जा सकता है। लेकिन इन दिनों सरकार जिस तरह से निजीकरण और विनिवेश को बढ़ावा देने की दिशा में आंखें मूद कर आगे बढ़ रही है और निजी क्षेत्र को मजबूती देकर आम लोगों को लाभ पहुंचाने की जो उम्मीद पाल रही है उसकी मंजिल किस ओर जाएगी यह पढ़ाई और दवाई के क्षेत्र में दिख ही रही है। बेहतर होता कि सरकार अपने संस्थानों की मजबूती को बढ़ाने की दिशा में ईमानदारी से प्रयास करती और निजी क्षेत्र के हितों को आगे रखने के लिये सार्वजनिक क्षेत्र के साथ वैसा सौतेला व्यवहार नहीं करती जैसा बीते कई सालों से सुनियोजित योजना के तहत किया जा रहा है। अगर सोच में ईमानदारी होती तो दूरसंचार के क्षेत्र में बीएसएनएल और एमटीएनएल को फोर-जी से वंचित करके उन्हें बेमौत मारने की साजिश नहीं रची जाती। अगर सोच में ईमानदारी होती तो आज एयर इंडिया की स्थिति यह नहीं होती क्योंकि कमाई वाले रूट पर निजी क्षेत्र को लाभ देने के लिये एयर इंडिया को रूट आवंटन में जिस सौतेले व्यवहार का सामना करना पड़ा उसके बाद भी वह अपना अस्तित्व बचाए हुए है तो यह किसी चमत्कार से कम नहीं है। अब रेलवे की कमर तोड़ने और निजी क्षेत्र को उसमें घुसाने की राह तलाशी जा रही है जबकि डाक विभाग पर भी गिद्धों की लपलपाहट किसी से छिपी नहीं है। सबसे अधिक शर्मनाक तो यह है कि देश को अंतरिक्ष के क्षेत्र में दुनिया का चैथा सबसे ताकतवर देश बनानेवाले इसरो के वैज्ञानिकों को अब उस प्रोत्साहन राशि से वंचित करने का फरमान जारी कर दिया गया है जिसकी शुरूआत ही इसलिये की गई थी ताकि वैज्ञानिकों को इसरो छोड़कर विदेश भागने के लिये मजबूर ना होना पड़े। लेकिन दुर्भाग्य से सरकार के रणनीतिकारों को यह खर्च बोझ लगने लगा है और बीते दिनों फरमान जारी कर दिया गया कि उन्हें इसका लाभ नहीं दिया जाएगा। पता नहीं इसरो को कमजोर करने से किसको और क्या लाभ मिल सकता है। ऐसे तमाम उदाहरण लगातार सामने आ रहे हैं जिससे सरकार के लोकल्याणकारी दिखावे की पोल खुलने लगी है और भारत की अर्थव्यवस्था पर धनकुबेरों के बढ़ते वर्चस्व की हकीकतें सामने आने लगी हैं। लेकिन सरकार को यह नहीं भूलना चाहिये कि देश के दो फीसदी अमीरों के हितो का संरक्षण करने के लिये अगर उसने 98 फीसदी आबादी की उम्मीदों, आकांक्षाओं और सपनों के साथ खिलवाड़ करने की गलती की तो उसे इसका खामियाजा भी भुगतना ही होगा और उस वक्त ये धनकुबेर भाजपा से ऐसे ही किनारा कर लेंगे जैसे इन दिनों बाकी विपक्षियों से किया हुआ है।