नि:शब्द




         

             (रंजना सिन्हा सैराहा)

स्कूल से बिटिया के लौटने पर मीना ने उसका लंचबाक्स देखा..बरस पड़ी उस पर "सौम्या!... आज फिर फल नहीं खाये....बात क्या है?. रोज-रोज का नाटक ,कई दिनों से देख रही हूं.."

  फलो की तो सौम्या दीवानी थी...खाना मिले या न मिले ।दादू का कहना' an apple in a day keeps doctor away '... उसकी दिनचर्या में शामिल था । लंचबाक्स से पराठा खाना लेती है और फल लौटा लाती है।

 लगभग-लगभग पन्द्रह दिन हो रहे हैं  आज पूंछती हूं "(कड़क आवाज़ में)क्यों ऐसा कर रही

 हो.. फल मुफ्त के नहीं आते.. सड़ा देती हो ..सर करती हो.. मुफ्त के नहीं आते..तुम्हें क्यामालूम कि पापा कितनी मेहनत से कमाते हैं कि मेरे बच्चे फल खाएं स्वस्थ रहें " मां थी कि चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी और बिचारी सौम्या मुंह लटकाए खड़ी थी...

मां की आवाज़ और कड़क होती जा रही थी...

दादी जो अभी तक दूर खड़ी थी ,उसे सौम्या की नम आंखों ने खींच लिया।"बच्चों को इतना नहीं डांटते मीना "आखिर फल से इसे अरुचि क्यों हो रही है  "?

दादी की पुचकार से सौम्या दादी से चिपक गयी और जोर जोर से रोने लगी।

"..मांजी आपके शय से ये और ढीठ होती जा रही है... देखिए तो मुंह बंद कर कैसा ड्रामा दिखा रही है.... घड़ियाली आंसू बहाना तो कोई इससे सीखे....आने दो इसके पापा को.... दिन-ब-दिन बदतमीजी बढ़ती जा रही है।

"..... नहीं, मीना बढ़ती उम्र की बच्ची है ,इस उम्र में बच्चों में बदलाव आता है"।

".... नहीं मांजी ढीठ होती जा रही है । मैं इसे सुधारती हूं....।

"...मुझे भी बात कहने दोगी"

दादी के हौसले सेसौम्या हिचकियां लेती कहने लगी ".......दादी मैं फल खा ही नहीं पा रही हूं, मेरा मन नहीं करता "।

"क्योंबेटा?(दादी और मीना का समवेत स्वर)

 "...आपको संडे का दिन याद है ,जब हम सब जनेश्वर मिश्र पार्क घूमने गये थे... आइसक्रीम खाने...एक  गंदा सा बच्चा डस्टबिन से केले के छिलके को दांतों से खरोंच खरोंच कर खा रहा था और रस निकाली मुसम्मी के छिलकों को चाट रहा था..."

      मीना की आंखें नम हो गयी और दादी उसे अवाक देखते हुए...धम्म से कुर्सी पर धंस गई

और गिरा चश्मा खोजनेलगीं।

 नि:शब्द मीना सौम्या को निहार रही थी।

      सौम्या का जन्मदिन.... पापा के आने पर  सब लोग पार्क के पास सभी गरीब बच्चों को फल बांटने निकल पड़े ।