संसदीय परंपरा में सकारात्मक बदलाव






लोकतांत्रिक शासन प्रणाली वाली व्यवस्था में संसद ही सर्वोच्च व सर्वशक्तिमान होती है। संसद ही कानून भी बनाती है और जरूरत पड़ने पर पर संविधान में भी समुचित संशोधन और बदलाव करती है। संसद ही सबसे बड़ी पंचायत भी कहलाती है जिसके अंग के तौर पर सांसदों की जिम्मेवारी बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। उनसे अपेक्षित रहता है कि उनके पास तमाम विषयों की जानकारी हो और किसी भी मामले के सभी पहलुओं से वे अवगत हों। संसद में विभिन्न मसलों व विषयों पर सांसदगण जो चर्चा या बहस करते दिखाई पड़ते हैं वह सिर्फ उनके निजी अनुभव या ज्ञान पर ही आधारित नहीं होता है बल्कि उसमें मौजूद अधिकांश तथ्य व जानकारी सांसदों के सहयोगियों द्वारा कड़ी मेहनत व रिसर्च करके जुटाई गई होती है। अब तक रिसर्च करके तथ्य व जानकारियां जुटाने का काम आम तौर पर सांसदों के निजी सहयोगी ही करते रहे हैं। यानि परंपरा यही रही है कि संसद में अपनी बात रखने और संसद को किसी एक राय पर पहुंचने के लिये सांसदों द्वारा रखे जाने वो तर्कों, तथ्यों व जानकारियों की गहराई उनके निजी अनुभवों और उनके द्वारा चुने गये सहायकों की योग्यता पर ही निर्भर रही है। जाहिर है कि ऐसे में गलतियां होने की गुंजाईश बहुत अधिक रहती है। ऐसे में आवश्यक है कि सांसदों को सहयोग करने के लिये समाज के सभी क्षेत्रों के विशेषज्ञ आगे आएं ताकि उनकी विशेषज्ञता का लाभ संसद के माध्यम से देश वा समाज को मिल सके। इसी बात को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार ने संसद के बंद दरवाजे को समाज के विशेषज्ञों के लिये खोलने की पहल करने में संकोच नहीं किया है और कुछ लोगों को सियासत के साथ जोड़कर, कुछ को चुनावी राजनीति के माध्यम से लाकर और कुछ को चुनावी राजनीति या सियासत की चुनौतीपूर्ण राहों से गुजारे बगैर ही मौजूदा सरकार ने सत्ता में सीधे तौर पर साझेदारी करने का मौका दिया है। मिसाल के तौर आरके सिंह, हरदीप पुरी, जनरल वीके सिंह, हरदीप पुरी, केजे अल्फांस सरीखे नेताओं का नाम लिया जा सकता है। यहां तक कि अपने दूसरे कार्यकाल में पूर्व विदेश सचिव डाॅ एस जयशंकर को सीधा ही विदेशमंत्री नियुक्त कर दिया गया। उसी लकीर को आगे बढ़ाते हुए अब भाजपा ने उन युवाओं की दक्षता व क्षमता का सदुपयोग संसद के हित में करने की दिशा में कदम आगे बढ़ाया है जो उच्चशिक्षा ले रहे हैं और शोध कार्यों को बेहतर तरीके से अंजाम दे सकते हैं। संसद में सांसदों के भाषणों में गहराई और पैनापन लाने के लिये भाजपा ने देश के युवाओं को संसदीय कार्य से जोड़ने की सराहनीय पहल की है। इस दफा पहली बार सत्तारूढ़ भाजपा ने पुरानी परिपाटी में बदलाव करते हुए अपने सांसदों के भाषणों को तेजस्वी व ओजस्वी बनाने के लिये देश के बड़े व प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों के मेधावी छात्रों की सेवाएं ली हैं। ये छात्र बिना किसी पारिश्रमिक, भत्ते या मानदेय के अपने घर की रोटी खाकर सांसदों के लिये रिसर्च कर रहे हैं और जिस विषय पर उन्हें पार्टी द्वारा संसद में बोलने की जिम्मेदारी दी गई होती है उसके बारे में तमाम तथ्य व जानकारियां इकट्ठा करके उन्हें उपलब्ध करा रहे हैं। बदले में इन छात्रों को सत्र के अंत में औपचारिक तौर पर पार्टी की ओर से एक प्रमाणपत्र दिया जाएगा और इन छात्रों द्वारा किये गये रिसर्च में कुछ चुनिंदा स्तरीय कार्यों को बकायदा लेखक के तौर पर उनके नाम से पुस्तक के तौर पर प्रकाशित कराया जाएगा। इन छात्रों को पार्टी के संसदीय दल के साथ जोड़ने का काम थिंक इंडिया नामक संस्था ने किया है जिसने देश भर के आईआईटी, आईआईएम व नेशनल स्कूल सरीखे प्रतिष्ठित उच्च शिक्षण संस्थानों से संसदीय विषय पर इंटर्नशिप के लिये आवेदन आमंत्रित किया था। आवेदन करने वाले हजारों छात्रों में से कुल चालीस छात्रों का चयन किया गया और उन्हें मौजूदा बजट सत्र के लिये भाजपा के संसदीय कार्यालय ने सांसदों के साथ सहयोगी के तौर पर जोड़ दिया। अभी के लिये चयनित किये गये छात्रों का काम मौजूदा बजट सत्र के साथ ही समाप्त हो जाएगा और संसद के अगले सत्र के लिये इसी तर्ज पर छात्रों का नया दल चयनित किया जाएगा। दरअसल संसद में जिन विषयों या विधेयकों पर चर्चा होनी होती है उसमें पार्टी की ओर से वक्ताओं का नाम तय हो जाने के बाद उस विषय के बारे में तमाम तथ्य व जानकारियां जुटाने की जिम्मेवारी इन छात्रों की ही होती है। सांसदों के भाषण में मौलिकता, नवीनता और तथ्यात्मकता लाने के लिये इन छात्रों को खास तौर पर यह निर्देश दिया गया है कि वे संबंधित विषय के बारे में तथ्य व जानकारियां जुटाने के लिये सिर्फ इंटरनेट पर ही निर्भर ना रहें बल्कि पुस्तकालयों, जर्नलों, विदेशों में प्रकाशित होनेवाली रिपोर्टों और मीडिया रिपोर्टों का अध्ययन करके जानकारियां जुटाएं। दरअसल यह इन छात्रों की मेहनत का ही नतीजा है कि देर रात तक चलनेवाली संसदीय बहस व चर्चाओं में नीरसता नहीं आ पाई है और सांसदों को उनके बेहतरीन भाषणों के लिये हर तरफ से वाहवाहियां मिल रही हैं। इसमें जहां एक ओर छात्रों को संसद के कामकाज को नजदीक से देखने व समझने के अलावा उसमें सहभागिता करने का मौका मिल रहा है जिसका लाभ उन्हें अपने जीवन में निश्चित तौर पर मिलेगा वहीं दूसरी ओर उनकी ऊर्जा व क्षमता का लाभ सांसदों को भी मिल रहा है और संसद की चर्चाएं व बहस अधिक तथ्यात्मक व प्रामाणिक हो रही हैं। निश्चित ही अगर संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है और सर्वोच्च शक्तिमान संस्था होने के नाते वह व्यवस्था की नियंता और नियामक है तो वहां के दरवाजे सभी के लिये खुले होने चाहियें और चुनाव जीतकर संसद में आने के बाद ही व्यवस्था के संचालन में सहभागिता करने की बाध्यता नहीं होनी चाहिये। हालांकि पहले से यह परंपरा है कि किसी भी विधेयक या मसले पर जब संसदीय समितियां विचार करके कोई निर्णय करती हैं तो उस प्रक्रिया में संबंधित विषय के विशेषज्ञों से रायशुमारी भी की जाती है और समाज के सभी वर्गों के विचार भी सुने जाते हैं। लेकिन इस परंपरा को और अधिक विस्तार देकर संसद के दरवाजों को अधिक खोलने और सत्ता व शासन के संचालन में गैरसियासी पृष्ठभूमि के लोगों को अधिक सक्रियता के साथ जोड़ने की जो पहल हो रही है वह निश्चित ही भारतीय लोकतंत्र की मजबूती के लिये बेहद सुखद व सकारात्मक है।