सत्य को नकारती सियासत





कर्नाटक के राजनीतिक नाटक में एक बात समग्रता से सामने आई है कि वहां कोई भी सत्य को यथारूप में स्वीकारने के लिये कतई तैयार नहीं है। ना तो भाजपा यह स्वीकार करने के लिये तैयार है कि प्रदेश में उत्पन्न सियासी संकट में उसने कोई भूमिका निभाई है और ना ही कांग्रेस के स्थानीय नेतागण यह मानने के लिये तैयार हैं कि कुमार स्वामी सरकार को सत्ता में स्वीकार कर पाना उनके लिये अब असहनीय हो चुका है लिहाजा लोकलाज का सम्मान और गठबंधन धर्म के प्रति अपनी इमानदारी का दिखावा करते हुए भी उसने अंदरखाने कुमारस्वामी सरकार की कारपेट के नीचे इतना बारूद भर दिया है उसका अस्तित्व बच पाने की कोई संभवना ही ना बचे। लेकिन भाजपा और कांग्रेस से भी अधिक शुतुर्मुर्गी तेवरों में तो मुख्यमंत्री कुमारस्वामी दिख रहे हैं जो यह मानने के लिये तैयार ही नहीं हैं कि उनकी सरकार की जमीन खिसक चुकी है और उसके अस्तित्व को बचाने की कोशिशें अब कतई कामयाब नहीं हो सकती हैं। हालांकि तकनीकी और संवैधानिक व्यवस्थाओं की आड़ लेकर कुमारस्वामी अपनी सरकार को बचाने का भरसक प्रयास अवश्य कर रहे हैं लेकिन वक्त जाया करने की रणनीति के सहारे इस तूफान से बचाव कर पाना उनके लिये किसी भी सूरत में संभव नहीं दिख रहा है। सच तो यह है कि राजनीति में गरिमा और मर्यादा के लिये भी एक कोना बचाए रखकर ही इतिहास में अपना नाम साफ सुथरे तौर पर दर्ज कराया जा सकता है। लेकिन सत्ता को पकड़े और जकड़े रखने के लिये जिस तरह की कोशिशें कुमारस्वामी की ओर से की जा रही हैं उसमें ना तो कोई गरिमा दिखाई पड़ रही है और ना यह उनके लिये मर्यादित माना जा सकता है। बेहतर तो यह होता कि जब कांग्रेस के सिद्धारमैया समर्थक कहे जानेवाले चैहद से ज्यादा विधायकों ने विधानसभा की सदस्यता से ही इस्तीफा दे दिया और सदन में बहुमत का आंकड़ा पूरी तरह सरकार के प्रतिकूल हो गया तब कुमार स्वामी खुद ही आगे बढ़कर अपना त्यागपत्र प्रस्तुत करके एक मिसाल कायम कर सकते थे। लेकिन ऐसा करने के बजाय वे विधानसभा अध्यक्ष पर दबाव बनाकर विश्वासमत पर मतदान को टलवाते जा रहे हैं उसमें उनका सत्तालोलुप चेहरा ही दिखाई पड़ रहा है। जिस सत्ता को पूरे हक और ठसक के साथ बचाने के लिये उन्होंने एड़ी चोटी का जोर लगाया हुआ है वह वास्तव में उन्हें कांग्रेस ने खैरात में ही सौंपी थी। लेकिन इस सच को स्वीकार करना कुमार स्वामी के लिये कतई संभव ही नहीं है। वास्तव में देखा जाये जो सत्य को नकारने की शुरूआत तो प्रदेश का जनादेश सामने आने के बाद से ही आरंभ हो गया था जिसमें कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी थी लेकिन भाजपा को भी अपने दम पर बहुमत का आंकड़ा हासिल नहीं हो पाया था। तभी तो कुमारस्वामी सरकार का स्थायित्व उसी दिन से सवालों के घेरे में है जिस दिन 78 सीटों वाली कांग्रेस ने चुनावी हार को स्वीकार करने से इनकार करते हुए 104 सीटें जीतकर 113 सीटों के बहुमत के आंकड़े से महज चंद कदमों की दूरी पर खड़ी भाजपा को सत्ता में आने से रोकने के लिये महज 37 सीटें जीतनेवाले जद-एस को बिना शर्त सरकार बनाने के लिये अपना समर्थन देने का ऐलान कर दिया। वह भी तक जबकि विधानसभा चुनाव में भाजपा विरोधी वोटों में सेंध लगाकर जद-एस ने ही कांग्रेस की दोबारा सूबे की सत्ता में वापसी के अरमानों पर पानी फेरा था। लिहाजा सूबाई समीकरणों के लिहाज से अपेक्षित था कि सशक्त विपक्ष की भूमिका निभाने के जनादेश का सम्मान करते हुए कांग्रेस चुपचाप पिछली सीट पर बैठ जाती और बहुमत के आंकड़े से महज नौ सीटें कम पानेवाली भाजपा को गठबंधन की सरकार चलाने का मौका देती। वैसे भी अगर जद-एस और भाजपा का गठजोड़ बनता तो उसे इस वजह से सार्थक कहा जा सकता था क्योंकि दोनों दलों ने भले ही चुनाव पूर्व गठजोड़ नहीं बनाया था लेकिन दोनों ने कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फेंकने का लक्ष्य सामने रखकर ही चुनाव लड़ा था। हालांकि एक अन्य विकल्प यह भी था कि चुंकि जनता ने भाजपा और कांग्रेस में से किसी को भी पूर्ण बहुमत नहीं दिया था और सत्ता की चाबी जद-एस को सौंपी थी लिहाजा आदर्श स्थिति यह भी हो सकती थी कि दोनों ही पार्टियां इस बात का प्रयास करतीं कि जद-एस का समर्थन हासिल करके बहुमत का आंकड़ा जुटा कर अपनी सरकार बनाई जाये। लेकिन जनादेश की भावना को दरकिनार कर पहले व दूसरे पायदान की पार्टियों के बजाय तीसरे पायदान की पार्टी को अगर सरकार बनाने का मौका मिला तो यह सत्य को नकारने का उदाहरण ही कहा जाएगा। लेकिन कहते हैं कि सत्य को कितना ही नकारा, छिपाया या दबाया क्यों ना जाए लेकिन वह मौका पाकर सामने आ ही जाता है। ऐसा ही इस बेमेल गठजोड़ के साथ भी हुआ है जिसकी जमीन खिसकने के बाद अब प्रदेश में स्थिर सरकार दे पाना कांग्रेस-जदएस गठबंधन के बूते से बाहर की बात हो चुकी है और चुनावी जनादेश की अवहेलना करके बनाए गए इस महामिलावटी गठबंधन की सरकार का स्वाभाविक पतन पूरी तरह तय है। हालांकि भाजपा चाहे तो विधानसभा में जारी सियासी नाटक का पटाक्षेप करके सूबे की सरकार को राज्यपाल के हाथों बर्खास्त भी करा सकती है लेकिन वह बड़प्पन दिखाते हुए सत्ता हथियाने की दौड़ में शामिल नहीं दिखना चाह रही है। साथ ही अंदरूनी हकीकत यह भी है कि भाजपा सत्तारूढ़ गठबंधन के बागी विधायकों की इमानदारी को लेकर सशंकित है और ऐसे में वह आगे बढ़कर कोई ऐसा कदम नहीं उठाना चाह रही है जिससे निकट भविष्य में जात भी गंवाया और भात भी नहीं पाया की नौबत आने की दूर दूर तक भी कोई संभावना हो। हालांकि विधायकों के लगातार हो रहे इस्तीफों के कारण 224 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत का आंकड़ा अब भाजपा के पक्ष में दिखाई पड़ रहा है। यही वजह है कि पर्दे के पीछे से बहुमत के आंकड़े का जुगाड़ करने की कोशिशों के तहत ही कुमारस्वामी सरकार विश्वासमत पर मतदान को अधिकमत समय तक टलवाने की रणनीति अपना रही है जबकि भाजपा तत्काल वोटिंग कराने का दबाव बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। ऐसे में अब यह देखना दिलचस्प होगा कि विधानसभा अध्यक्ष के रहमोकरम पर अंतिम सांसे गिन रही कुमारस्वामी सरकार का पतन कितने वोटों के अंतर से होता है।