थोड़े थोड़े अंतराल में हो लोक अदालतों का आयोजन

(डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा)


राजस्थान में राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण द्वारा आयोजित एक दिनी लोक अदालत में ही 61 हजार मामलों का निस्तारण इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि आपसी समझाइस  से मामलों का निस्तारण कर न्यायालयों में वर्षों से लंबित विचाराधीन मामलों को आसानी से निपटाया जा सकता हैं। हांलाकि सर्वोच्च न्यायालय की पहल पर अब लोक अदालतों का आयोजन होने लगा हैं और उसके सकारात्मक परिणाम भी मिलने लगे हैं। पर इस तरह की लोक अदालत राज्यों के विधिक सेवा प्राधिकरणों द्वारा भी समय-समय पर आयोजित की जाती रहे तो अदालतों में लंबित करोड़ों प्रकरणों में से लाखों प्रकरणों का निस्तारण हो सकता है और इससे न्यायालयों का काम का बोझ भी कम हो सकता है। अभी पिछले दिनों ही केन्द्र सरकार द्वारा संसद में प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण में बताया गया है कि देष की अदालतों में साढ़े तीन करोड़ से अधिक मामलें लंबित चल रहे हैं। नेषनल ज्यूडिषियल डाटा ग्रिड के ताजातरीन आंकड़ों के अनुसार देष की अधीनस्थ अदालतों में 3 करोड़ 12 लाख से अधिक प्रकरण विचाराधीन चल रहे हैं। इनमें 3 लाख 86 हजार मुकदमें तो 20 से 30 साल पुराने हैं। यही कारण कि पिछले साल देष की सर्वोच्च अदालत ने केन्द्र सरकार से उच्च न्यायालयों में 93 और अधीनस्थ न्यायालयों में 2773 न्यायाधीषों के पद स्वीकृत करने का पत्र लिखकर पद सृजन करने का आग्रह किया है।
आज देश भर के न्यायालयों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है। इसमें कोई दो राय नहीं कि न्याय मिलने में समय कितना भी लगे पर लोगों का देष की न्याय व्यवस्था पर विष्वास है। जोली एलएलबी 2 के अंतिम दृष्य में माननीय न्यायाधीष द्वारा यह कहना कि लोगों का आज भी न्यायपालिका पर विष्वास है तो यह अतिषयोक्ति नहीं कही जा सकती है। ज्यूडिषियल ग्रिड की रिपोर्ट और संसद में प्रस्तुत आर्थिक सर्वेक्षण की रपट के अनुसार देश भर की अदालतों में साढ़े तीन करोड़ मुकदमें लंबित चल रहे हैं। निश्चित रुप से इनमें से बहुत से मुकदमें तो कई दशकों से चल रहे हैं। इनमें से कई मुकदमें इस प्रकृति के भी हैं कि जिनका निस्तारण आपसी समझाइष व सरकार के सकारात्मक रुख से आसानी से हा सकता है। अब यातायात पुलिस के चालान, बैंकों के कर्ज वसूली से संबंधित प्रकरण, पारिवारीक विवाद, चैक बाउंस होने या इसी तरह की छोटी-छोटी प्रकृति के लाखों की संख्या में विवाद न्यायालयों में लंबित होने से मुकदमों की संख्या बढ़ने से न्यायालयों पर अनावश्यक कार्य भार बढ़ता है। ऐसे में अभियान चलाकर इस तरह के मुकदमों का आपसी सहमति से निस्तारण निश्चित रुप से सराहनीय पहल हैं। अच्छी बात यह भी है कि लोक अदालत में निस्तारित मुकदमों की अपील नहीं की जा सकती, इससे बड़ी राहत मिलती है नहीं तो अपील दर अपील मुकदमें एक अदालत से दूसरी अदालत तक चलते ही रहते हैं और अंतिम निस्तारण की स्थिति आती ही नहीं। दशकों तक वाद का निस्तारण नहीं होने से वादी भी निरुत्साहित और ठगा हुआ महसूस करता है। हांलाकि मुकदमों के अंबार को कम करने की दिशा में ठोस प्रयास निरतंर जारी है। कम्प्यूटरीकरण के माध्यम से मुकदमों की स्थिति, वाद की तारीख और अन्य जानकारी मुहैया कराई जाने लगी है। इससे वादियों को इस मायने मेें राहत है कि मुकदमें की स्थिति, तारीख आदि के लिए चक्कर नहीं काटने पड़ते हैं पर काम के बोझ और न्यायाधीशों की कमी के कारण निस्तारण में तेजी नहीं आ पा रही है। 
हमारे देश में 14 हजार के लगभग निचली अदालते कार्यरत है। इसी तरह से 24 हाईकोर्ट और इनकी 300 बैंच सेवांएं दे रही है। सर्वोच्च न्यायालय की 13 बैंचों में 29 न्यायाधीपतियों द्वारा मुकदमों का निस्तारण किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय देश में लंबित मुकदमों के प्रति काफी गंभीर है। लोक अदालत की पहल से लंबित मुकदमों की संख्या कम करने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम माना जा सकता है।
लोक अदालत के माध्यम से 61 हजार मुकदमों का निस्तारण इस मायने मेें महत्वपूर्ण हो जाता है कि लोक अदालत के दौरान 1970 यानी की करीब 50 साल से लंबित प्रकरण का निस्तारण आपसी समझाइष से संभव हो सका वहीं 1989 से लंबित मुकदमें का निस्तारण भी राजीनामें से हो सका। 61 हजार के अतिरिक्त 10 हजार प्री लिटिगेषन के मामलें भी निपटाएं जा सके। लोक अदालत का आयोजन इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाता है कि इसमें लाखों की संख्या में देष भर में दर्ज यातायात नियमों के उल्लंघन के प्रकरणों, मामूली विवाद के प्रकरणों, पारिवारीक राजस्व विवादों, भुगतान के लिए दिए गए चैक बाउंस होने के मामलों आदि को आपसी समझाइष से आसानी से निपटाया जा सकता है। दहेज और पति-पत्नी के बीच के विवादों को तो और भी आसानी से निपटा कर बड़ी राहत दी जा सकती है। क्योंकि यह सब इस तरह के प्रकरण है जिनकों वादी-प्रतिवादी के बीच हो या सरकार व वादी के बीच दोनों ही पक्ष इनके निस्तारण में अपनी भलाई ही समझते हैं और इससे न्यायालयों में भी बेकार का काम का बोझ आसानी से कम हो सकता है। ऐसे में लोक अदालत की इस तरह की पहल को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। लोक अदालतों के आयोजन का व्यापक प्रचार-प्रसार होने से सकारात्मक माहौल बन सकेगा।