विरोध के लिये विरोध का बचकानापन




संसदीय लोकतंत्र में विपक्ष से इस बात की तो कतई अपेक्षा ही नहीं की जा सकती कि वह किसी भी मामले में सरकार का आंखें मूंद कर सहयोग करेगा अथवा बिना नुक्ताचीनी के किसी भी बात को मान लेगा। सरकार की नीति और नीयत पर शक करना विपक्ष की जिम्मेवारी भी है और उसके बारे में आम लोगों को जगरूक करना उसका कर्तव्य भी है। लेकिन इसके लिये किसी भी मामले की पूरी जानकारी होना आवश्यक है वर्ना आधी-अधूरी जानकारी के आधार पर अथवा झूठ व फरेब की रणनीति के तहत सरकार को बेवजह बदनाम करने की कोशिशों का क्या नतीजा होता है वह राफेल खरीद के मामले में चैकीदार को चोर बताने की चुनावी रणनीति को आम लोगों द्वारा सिरे से नकार दिये जाने के मामले में स्पष्ट देखा जा चुका है। लेकिन उससे विपक्ष ने कोई सबक लिया हो ऐसा कहीं से भी महसूस नहीं हो रहा है। यही वजह है कि सुनी-सुनाई बातों के आधार पर सरकार को कठघरे में खड़ा करने की जल्दबाजी के कारण विपक्ष की बातों से आम लोगों का भरोसा पूरी तरह उठता जा रहा है। स्थिति यह हो गई है कि अब विपक्ष की ओर से उठाए जाने वाले मसलों को लेकर संसद में भले ही थोड़ी देर के लिये गहमागहमी या गरमागरमी का माहौल बन भी जाता है लेकिन सड़क पर विपक्ष की बातों पर भरोसा करना किसी को गवारा नहीं होता। आम लोगों के बीच विपक्ष की बातों को गंभीरता से नहीं लिये जाने का ही नतीजा है कि मसला चाहे सोनभद्र में हुए कथित नरसंहार का हो, पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक तनाव का या फिर कर्नाटक, आंध्र प्रदेश व गोवा से लेकर महाराष्ट्र व बंगाल तक में सांसदों व विधायकों की खरीद-फरोख्त का। इन तमाम मसलों को तूल देकर सरकार को कठघरे में खड़ा करने का विपक्ष के पास सुनहरा मौका है लेकिन आम लोगों के बीच उसकी विश्वसनीयता समाप्त हो जाने का ही नतीजा है कि खुली आंखों से सबकुछ स्पष्ट दिखाई पड़ने के बावजूद विपक्ष के प्रति किसी की भी सहानुभूति दिखाई नहीं पड़ रही है। वर्ना जब सोनभद्र में मारे गए आदिवासियों की पीड़ा को मुखर करने के लिये कांग्रेस के शीर्षतम नेताओं में शुमार होनेवाली राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका वाड्रा खुद धरने पर बैठ गईं उसके बावजूद ना तो उत्तर प्रदेश में उनके समर्थन में कहीं कोई धरना, प्रदर्शन, जुलूस या सभा का आयोजन हुआ और ना ही राष्ट्रीय स्तर पर इसका कोई गंभीर असर पड़ा। उल्टा इस मुद्दे के लिये कांग्रेस के 70 साल के शासन की नीतियों को जिम्मेवार ठहराकर सत्ता पक्ष ने कांग्रेस को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। वह भी तब जबकि बीते तीन दशकों से प्रदेश की राजनीति में कांग्रेस काफी हद तक हाशिये पर ही है। निश्चित तौर पर विपक्ष को इस बारे में सोचना होगा कि आखिर उसकी विश्वसनीयता में कैसे इजाफा हो सकता है। लेकिन दुर्भाग्य से अपनी गलतियों को सुधारने की राह तलाशने के बजाय विपक्ष उन्हीं गलतियों को बार-बार दोहरा रहा है जिससे उसके आरोपों की गंभीरता ही समाप्त नहीं होती बल्कि उसकी अपनी विश्वसनीयता पर भी भारी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मिसाल के तौर पर सूचना के अधिकार कानून में सरकार द्वारा किये जा रहे बदलावों को सीधे तौर पर समूचे विपक्ष ने इस तौर पर प्रचारित करना आरंभ कर दिया मानो सरकार ने इस कानून के नाखून ही काट दिये हों और विषदंत ही तोड़ दिये हों। यहां तक विपक्ष की शीर्षतम नेत्री सोनिया गांधी ने भी ऐसी प्रतिक्रिया दी मानो प्रस्तावित बदलावों के लागू हो जाने के बाद इस कानून का कोई अर्थ, महत्व या मतलब ही नहीं रह जाएगा। जबकि सच तो यह है कि सरकार ने इस कानून को अधिक व्यावहारिक बनाने के लिये ही इसमें कुछ बदलावों का प्रस्ताव किया है। यह बदलाव सूचना आयुक्त की नियुक्ति और उसकी तनख्वाहों को व्यावहारिक बनाने के मकसद से किया जा रहा है ना कि इस कानून के दायरे या इसकी पहुंच व पकड़ मे कमी करने के मकसद से। नतीजन विपक्ष के द्वारा उठाये गये सवालों को लेकर सड़क पर आम लोगों के बीच किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया ही दिखाई नहीं पड़ रही है। यहां तक कि पूरे देश में मौजूद सूचना अधिकार क्रांतिकारियों ने भी सरकार के खिलाफ कहीं कोई धरना-प्रदर्शन करना जरूरी नहीं समझा है। अगर आम लोगों के बीच कहीं कोई असंतोष नहीं दिख रहा है तो इसकी मुख्य वजह यह है कि विपक्ष की बातों को अब लोग गंभीरता से लेने की जहमत ही नहीं उठा रहे हैं। आखिर विपक्ष की बातों को गंभीरता से लिया भी क्यों जाए? जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोलाल्ट ट्रम्प द्वारा बके गये झूठ को अमेरिका का विदेश विभाग और वहां के जनप्रतिनिधि ही भरोसे के लायक ना समझ रहे हों और और इसको लेकर उनकी तबियत से मजम्मत की जा रही हो तब भारत का विपक्ष अपनी ही सरकार की बातों पर भरोसा करने के बजाय प्रधानमंत्री मोदी की छवि खराब करने के लिये उनसे सफाई की मांग करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। कायदे से तो देशहित से जुड़े ऐसे मसले पर आपसी व दलगत मतभेदों को किनारे रखकर पूरे देश को अमेरिकी राष्ट्रपति के खिलाफ एकजुट दिखना चाहिये था लेकिन हुआ यह है कि अपने विदेशमंत्री को संसद में सफाई देने के लिये विवश होना पड़ रहा है जिसकी हकीकत को जानने के बावजूद विपक्ष अपने राजनीतिक स्वार्थों के तहत मानने के लिये तैयार नहीं है। निश्चित ही ऐसे मामलों में विपक्ष को थोड़ा इंतजार करना चाहिये था और भारतीय विदेश मंत्रालय के स्पष्टीकरण की मांग करनी चाहिये थी। लेकिन विदेश मंत्रालय की बातों को गंभीरता से लेने के बजाय प्रधानमंत्री को ट्रम्प के झूठ पर अपना पक्ष रखने के लिये मजबूर करने का प्रयास करना यही दर्शाता है कि अपनी राजनीति चमकाने के लिये देशहित की अनदेखी करना विपक्ष का शगल बन चुका है। ऐसी सूरत में अगर आम लोगों के बीच विपक्ष की विश्वसनीयता का अभाव दिख रहा है तो इसमें कुछ भी गलत नहीं है। बेहतर होगा कि विपक्ष एक बार ठहर कर इतना चिंतन तो करे कि किन बातों पर सरकार का सहयोग करना है और किन बातों पर विरोध। वर्ना विश्वसनीयता के रसातल में जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी ही रहेगा।