सकारात्मक सोच, रचनात्मक राजनीति




लोकसभा चुनाव का नतीजा सामने आने के बाद विपक्ष जिस सदमे का शिकार हो गया था उससे अब बाहर निकलता दिख रहा है। हालांकि सदमा लगना स्वाभाविक था क्योंकि अपनी ओर से उसने मान लिया था कि इस किसी दल को बहुमत का आंकड़ा हासिल नहीं होगा। ऐसे में तमाम विपक्षी दलों की उम्मीदें कुलाचें भर रही थी और हर किसी कोशिश सिर्फ इतनी ही थी कि किसी भी तरह से सत्ता की चाबी उसकी हाथों में आ जाए और सरकार बनाने के लिये उसका समर्थन ही निर्णायक रहे। इसी लक्ष्य को साधने के लिये कांग्रेस का अपना अलग गुट सक्रिय था तो गैर-कांग्रेसी विपक्ष का प्रादेशिक स्तर पर अलग तंत्र खड़ा हो रहा था। यहां तक कि चुनाव के बाद भाजपा और कांग्रेस से इतर दलों को एक मंच पर लाने की अंतिम कोशिश भी हुई ताकि त्रिशंकु संसद में तीसरी ताकतों की सरकार बनवाई जा सके। यानि तमाम कवायदें इसी बात को ध्यान में रखकर की गई थीं कि इस बार के चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी को आम जनता का उतना विश्वास हासिल नहीं होगा जितना 2014 के समय हासिल हुआ था। यानि निशाने पर मोदी की लोकप्रियता थी लिहाजा तमाम विपक्षियों ने अपना पूरा चुनाव प्रचार मोदी को घेरने के मकसद से ही किया। नतीजा रहा कि समूचा विपक्ष मोदी से लड़ता दिखाई पड़ा जिसके कारण बाकी तमाम मुद्दे गौण हो गए और मोदी खुद ही अपने आप में मुद्दा बन कर उभर गए। उसके बाद जो हुआ वह इतिहास बना गया क्योंकि विपक्ष ने मोदी को मुद्दा तो बना दिया लेकिन उसका विकल्प पेश करने में वे कामयाब नहीं हो सके। ना तो मोदी को किसी इल्जाम में लपेटा जा सका और ना ही मोदी की नीतियों से बेहतर कोई बात सामने रखी जा सकी। यहां तक कि अंतिम समय में तो मोदी विरोध ने इतना नकारात्मक रूप ले लिया कि आम जनता की पूरी सहानुभूति मोदी के साथ जुड़ गई जिसके नतीजे में  सूबाई स्तर पर पचास फीसदी वोट शेयर हासिल करने के जिस लक्ष्य के साथ भाजपा ने चुनाव लड़ा उसे वह तकरीबन एक दर्जन से ज्यादा राज्यों में हासिल करने में कामयाब रही। लिहाजा चुनावी नतीजा सामने आने के बाद विपक्ष को सदमा लगना स्वाभाविक ही था। लेकिन वक्त के साथ अब विपक्ष उसे सदमे से भी उबर रहा है और पिछली गलतियों से सीख लेकर भविष्य के लिये अलग रणनीति पर अमल की दिशा में आगे बढ़ता हुआ भी दिख रहा है ताकि आम जनमानस में बन चुकी अपनी नकारात्मक छवि को तोड़ा जा सके। इसी का नतीजा है कि अव्वल तो संसद के संचालन में गतिरोध उत्पन्न करने की पुरानी रणनीति से दूरी बना ली है और दूसरी ओर सीधे प्रधानमंत्री मोदी को अपने निशाने पर रखने से परहेज बरता जा रहा है। यहां तक कि सकारात्मक माहौल बनाने और अपनी राष्ट्रवादी व रचनात्मक छवि जनमानस में उकेरने के लिये भी पुरजोर प्रयास किया जा रहा है। विपक्ष की नीति और नीयत में यह बदलाव राष्ट्रीय राजनीति में भी दिख रहा है और प्रादेशिक स्तर पर भी। खास तौर से जम्मू कश्मीर में राज्यपाल शासन की अवधि बढ़ाने और नियंत्रण रेखा के पास रहनेवालों की ही तरह अंतर्राष्ट्रीय सीमा के पास रहने वालों को भी आरक्षण का लाभ देने के लिये गृहमंत्री की हैसियत से अमित शाह द्वारा लाए गए विधेयक को जिस तरह से दलगत राजनीति से ऊपर उठकर विपक्ष का सहयोग व समर्थन मिला है वह निश्चित ही सराहनीय भी है और विपक्ष की सकारात्मक राजनीतिक पहल के तौर पर देखते हुए प्रशंसनीय भी। यह नीतिगत बदलाव ही तो है कि कल तक हर मामले में आंखे मूदं कर मोदी सरकार की हर पहल का सड़क से लेकर संसद तक पुरजोर विरोध करनेवाले तृणमूल कांग्रेस और समाजवादी पार्टी सरीखे दलों ने भी अब रचनात्मक सोच का मुजाहिरा करते हुए जम्मू कश्मीर के लिये लाये एक विधेयकों पर सरकार के पक्ष में अपने रूख का इजहार किया है। इसी प्रकार बिहार में चमकी बुखार के मामले को लेकर प्रदेश के मुख्यमंत्री नितीश कुमार के खिलाफ पुरजोर आक्रामक दिख रहे राजद के शीर्ष नेतृत्व ने सार्वजनिक तौर पर इस मामले में प्रधानमंत्री मोदी के रूख व केन्द्र सरकार की पहलों की खुल कर सराहना की है। इसी प्रकार भाजपा ने भी विपक्ष के सकारात्मक पहलुओं के समर्थन में खुल कर सामने आने से संकोच नहीं दिखाया है। मिसाल के तौर पर तृणमूल सांसद नुसरत के हिन्दू रीति-रिवाज से शादी करने, मांग में सिंदूर लगाने, संसद के भीतर वंदे मातरम का नारा बुलंद करने और संसद की सदस्यता की शपथ लेने के बाद लोकसभा अध्यक्ष का पैर छूकर आशीर्वाद लेने को लेकर कठमुल्लों द्वारा जारी किये गये फतवों और मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथी वर्ग द्वारा किये जा रहे उनके विरोध के खिलाफ जितना आक्रामक मोर्चा भाजपा ने खोला उतनी हिम्मत दिखाना तृणमूल के नेताओं के लिये भी संभव नहीं हो सका। निश्चित तौर पर संसद से लेकर सड़क तक दिख रहे इस सियासी बदलाव की जितनी सराहना व प्रशंसा की जाये वह कम ही होगी। यही भारत के लोकतंत्र की खूबसूरती है जिसमें मुद्दों का तो विरोध होता है लेकिन राजनीतिक दुश्मनी को निजी स्तर पर नहीं निभाया जाता। बेशक बीते कुछ साल इस मामले में बेहद खराब व काफी त्रासद रहे जिसमें राजनीति का बेहद विद्रूप चेहरा सामने आया जिसने सियासत के प्रति आम लोगों में वितृष्णा का भाव भरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन जनता जनार्दन के जनादेश ने सबके होश को ठिकाने पर ला दिया है और अंदरूनी आत्मचिंतन के बाद सबको यह समझ में आया है कि नकारात्मकता और विरोध के क्रम में भी एक लक्ष्मण रेखा का ध्यान सबको रखना चाहिये। यही बात प्रधानमंत्री मोदी ने संसद में भी कही जिसे सभी राजनीतिक दलों ने सकारात्मक भाव से अनुसरण के काबिल समझा है। अब उम्मीद यही करनी चाहिये कि सकारात्मक सोच और रचनात्मक राजनीति की यही तस्वीर संसद से लेकर सड़क तक भविष्य में भी दिखाई पड़े ताकि राजनीति पर लोगों का गुम हो रहा विश्वास दोबारा पूरी मजबूती के साथ स्थापित हो सके और यह सिर्फ सत्ता प्राप्ति का साधन नहीं बल्कि देश व समाज की सेवा का माध्यम बन कर सामने आये।