चुनौती नयी, रणनीति वही







आगामी दिनों में होने वाले तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों की औपचारिक घोषणा होने का भले ही अभी इंतजार जारी हो लेकिन इस जंग की जमीनी तस्वीर अब काफी हद तक साफ हो चली है। मौजूदा हालातों में जो तस्वीर उभर कर सामने आ रही है उसमें बेशक चुनौती नयी हो लेकिन इसको लेकर तमाम पक्षों की रणनीतियां वही रहनेवाली हैं जो लोकसभा चुनाव के दौरान दिखाई पड़ चुकी है। यानी भाजपा का खेमा पूरी तरह चुस्त-दुरूस्त और बूथ स्तर तक सक्रिय जबकि विरोधी पक्ष मुद्दाविहीन, दिशाहीन और बिखरा हुआ। आलम यह है कि जहां एक ओर भाजपा ने इन चुनावों के लिये अपने मुद्दे भी तय कर लिये हैं और चेहरे का भी चयन कर लिया है वहीं दूसरी ओर विपक्षी खेमा यह भी तय नहीं कर पाया है कि वह किस दिशा में आगे बढ़ेगा और किन मुद्दों को हथियार बनाकर भाजपा के विजय रथ को रोकने का प्रयास करेगा। अव्वल तो यही तय कर पाना विपक्ष के लिये संभव नहीं हो पा रहा है कि वह अकेले चुनाव लड़ेगा या खेमाबंदी करके। दूसरे आंतरिक कलह से जूझ रहे विपक्ष के लिये चेहरे का चयन करना भी बड़ी सिरदर्दी बन कर सामने आया है। बात चाहे हरियाणा की करें, झारखंड की या फिर महाराष्ट्र की। तीनों ही सूबों में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की स्थिति यह है कि उसे अंदरूनी कलह, खींचतान और उठापटक से निपटने का कोई फार्मूला ही नहीं सूझ रहा है। इसका हल निकलने के बाद ही यह तय किया जा सकेगा कि इन सूबों में किसके साथ तालमेल बनाकर चुनाव लड़ा जाये। दूसरी ओर अगर तीनों सूबों में सत्तारूढ़ भाजपा की बात करें तो लोकसभा चुनाव में मिली करारी शिकस्त से हतोत्साहित व टूटे-बिखरे विपक्ष की ओर से कोई बड़ी चुनौती मिलने की दूर-दूर तक संभावना नहीं दिखने से उत्साहित होकर पार्टी ने अब अंतिम दौर की तैयारियां आरंभ कर दी हैं। भाजपा साफ तौर पर यह मान चुकी है कि चुनावी राज्यों में उसे सत्ता विरोधी लहर का कतई सामना नहीं करना पड़ेगा। मौजूदा हालातों में उसे इस बात का पक्का यकीन है कि जिस तरह से केन्द्र में मोदी सरकार की दोबारा वापसी हुई है उसी प्रकार हरियाणा, झारखंड व महाराष्ट्र सरीखे सूबों में भी पहले से कहीं अधिक सीटों के साथ उसकी वापसी होगी। सरकार के पक्ष में जन समर्थन के यकीन का ही नतीजा है कि पार्टी को किसी भी सूबे में चेहरा बदलने की जरूरत महसूस नहीं हो रही है। भाजपा ने तो तीन चुनावी राज्यों के बाद होने वाले दिल्ली विधानसभा केे चुनाव की तैयारियां भी शुरू कर दी हैं लेकिन इसके लिये अभी यह तय किया जाना बाकी है कि किसी चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ा जाये या सामूहिक नेतृत्व के आधार पर ही जनादेश हासिल करने का प्रयास किया जाये। इसी सिलसिले में आज भाजपा मुख्यालय पर राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के साथ झारखंड प्रदेश भाजपा के प्रभारी ओम माथुर, हरियाणा प्रदेश भाजपा के प्रभारी नरेंद्र सिंह तोमर व अनिल जैन, महाराष्ट्र प्रदेश भाजपा के प्रभारी भूपेंद्र यादव व सरोज पांडेय और दिल्ली प्रदेश भाजपा के प्रभारी प्रकाश जावेड़कर की महत्वपूर्ण व विस्तृत बैठक हुई। सुबह ग्यारह बजे से आरंभ होने के बाद  बैठक के पहले चरण में अमित शाह ने सभी के साथ संयुक्त रणनीति पर चर्चा की जबकि दोपहर तीन बजे से राज्यवार अलग-अलग बैठकें हुईं। पार्टी के उच्च पदस्थ सूत्रों से मिली जानकारियों के मुताबिक पूरे दिन चली इन बैठकों के बाद इस बात पर सैद्धांतिक तौर पर मुहर लग गई है कि झारखंड, महाराष्ट्र और हरियाणा में मौजूदा मुख्यमंत्रियों के चेहरे को ही आगे करके चुनाव लड़ा जाएगा। हालांकि दिल्ली को लेकर अभी तक कोई फैसला नहीं हो पाया है लेकिन सूत्रों की मानें तो यहां किसी चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ने के बजाय सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने के विकल्प पर गंभीरता से विचार किया जा रहा है। इस तरह से यह बात पूरी तरह साफ हो गई है कि इन चुनावी राज्यों में भाजपा ने भले ही पिछली बार किसी चेहरे को आगे करके चुनाव ना लड़ा हो और चुनाव परिणाम आने के बाद ही हरियाणा में मनोहरलाल खट्टर, झारखंड में रघुवर दास और महाराष्ट्र में देवेन्द्र फड़नवीस को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपी हो लेकिन इस बार के चुनाव में इन मुख्यमंत्रियों के चेहरे को आगे करके ही दोबारा जनादेश प्राप्त करने की दिशा में कदम आगे बढ़ाया जाएगा। साथ ही आज की बैठक से यह भी उभर कर सामने आया है कि विधानसभा चुनावों में भी लोकसभा चुनाव की रणनीति ही अमल में लायी जाएगी जिसके तहत केन्द्र सरकार के कामकाज का जमकर प्रचार किया जाएगा और खास तौर से अनुच्छेद 370 और तीन तलाक सरीखे मसलों पर मोदी सरकार द्वारा लिये गये ऐतिहासिक फैसले को आगे रखकर ही मतदाताओं का समर्थन हासिल करने का प्रयास किया जाएगा। दूसरे शब्दों में कहें तो बेशक हर चुनाव नया होता है जिसकी चुनौतियां भी नयी होती हैं लेकिन इस बार उन नयी चुनौतियों को भाजपा ने उस पुरानी रणनीति से ही हल करने की राह पकड़ी है जिससे लोकसभा चुनाव में उसे ऐतिहासिक जीत मिल चुकी है। यानी लोकसभा चुनाव की छाप इस बार के विधानसभा चुनावों में भी स्पष्ट दिखनेवाली है। ऐसे में अगर नतीजा भी लोकसभा चुनाव सरीखा ही सामने आये तो किसी को जरा भी आश्चर्य नहीं होगा। वास्तव में देखा जाये तो विपक्ष की उत्साहहीनता ने पूरे चुनावी माहौल को काफी हद तक नीरस बना दिया है जिसमें भाजपा के लिये मैदान पूरी तरह निष्कंटक व खुला हुआ दिखाई पड़ रहा है। उसमें भी ना तो भाजपा की प्रदेश सरकारों व कुशासन या भ्रष्टाचार का कोई इल्जाम चस्पां हो पाया हो पाया है और ना ही केन्द्र की सरकार ने ही अपनी लोकप्रियता की चमक को कम होने दिया है। बल्कि सरकार गठन के बाद 75 दिनों में 75 काम निपटाकर और खास तौर से कश्मीर के मसले पर पहल करके मोदी सरकार ने वास्तव में समाज के काफी बड़े वर्ग का दिल जीत लिया है। ऐसे में अब चिंतन करने की जरूरत विपक्ष को है कि अपना अस्तित्व बचाने के लिये अंतिम दम तक लड़ने की दिशा में आगे बढ़ा जाये अथवा सियासी धारा के समक्ष समर्पण करके भाजपा की लोकप्रियता में कमी आने का इंतजार करते हुए हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहा जाये।