देश का दुर्भाग्य






इसे देश का दुर्भाग्य ना कहें तो और क्या कहें कि अपनी राजनीति चमकाने के लिये हमारे राजनीतिज्ञ अब इस बात की परवाह भी नहीं करते कि उनकी कथनी और करनी से देश को कितना नुकसान पहुंच रहा है। आज जबकि कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाये जाने को लेकर समूचा विश्व भारत के साथ है और पाकिस्तान के रूदाली रूदन और आलाप-प्रलाप पर ध्यान देना भी गवारा नहीं किया जा रहा है तब हमारे देश के भीतर ने ही ना सिर्फ कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के रूख को समर्थन मिल रहा है बल्कि उसे भारत सरकार को संयुक्त राष्ट्र के कठघरे में खड़ा के लिये दलीलें पुख्ता करने के लिये भी हमारे ही नेताओं के बयानों का सहारा भी मिल रहा है। बेशक संयुक्त राष्ट्र को लिखे गये पत्र में पाकिस्तान द्वारा देश के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के बयानों को आधार बनाये जाने के बाद राहुल ने ट्वीट करके अपनी स्थिति स्पष्ट की हो और कश्मीर को भारत का अंदरूनी मसला करार दिया हो लेकिन इस पूरे प्रकरण में उनके बयानों से पाकिस्तान के मनोबल को जितना सहारा मिल चुका है उसकी भरपाई कर पाना संभव ही नहीं है। इस मामले में सिर्फ राहुल ही नहीं बल्कि धुर मोदी विरोधी राजनीति करने वाले वामपंथियों से लेकर समाजवादियों तक ने जिस तरह के रूख का प्रदर्शन किया है वह ना सिर्फ दुर्भाग्यपूर्ण बल्कि शर्मनाक भी है। सच तो यह है कि भारत के भीतर नेताओं और बुद्धिजीवियों से लेकर पत्रकारों तक का एक बड़ा वर्ग कश्मीर के मसले पर निहायत की बेवकूफाना हरकतें व बातें कर रहा है जिन्हें कश्मीर की मौजूदा शांति हजम नहीं हो रही है। वे चाह रहे हैं कि किसी भी तरह अशांति की स्थिति उत्पन्न हो, सड़कों पर खून बहे, जानें जाएं, दुनिया को मानवाधिकार हनन की बातें करने का मौका मिले और भारत सरकार पर दबाव बढ़े ताकि जम्मू कश्मीर में पूर्व स्थिति बहाल कराने की लड़ाई छेड़ी जा सके। सरकार ने जम्मू कश्मीर में शांति और अमन-चैन का माहौल बनाने के लिये जो तात्कालिक सख्ती व पाबंदियां लगाई हुई हैं उसके खिलाफ सड़क पर भी छाती कूटने से परहेज नहीं बरता जा रहा है और सर्वोच्च न्यायालय में भी इस बात का जीतोड़ प्रयास किया जा रहा है ताकि संविधान का सहारा लेकर सूबे में पूर्व स्थिति बहाल कराई जा सके। तभी तो संसद द्वारा 370 को हटाये जाने के बहुमत से पारित प्रस्ताव की वैधानिकता को भी चुनौती दी गई है और वहां लगाये गये कुछ आवश्यक प्रतिबंधों को हटाने की भी मांग की जा रही है। निश्चित ही इससे यही संदेश जा रहा है कि देश को बाहर के दुश्मनों से उतना खतरा नहीं है जितना देश के भीतर मौजूद स्वार्थी व सियासी तत्वों से खतरा है। अपनी राजनीति चमकाने के लिये और सरकार के फैसलों का विरोध करने के लिये विपक्ष को हर्गिज आलोचना का शिकार नहीं बनाया जा सकता। यह तो उसके हक भी है और कर्तव्य भी। लेकिन इसमें यह तो देखना ही पड़ेगा कि आखिर विरोध की लक्ष्मण रेखा क्या हो। अब तक परंपरा रही है कि रक्षा और विदेशनीति के मामले में पूरे देश का सुर हमेशा से एक रहा है। इसमें सरकार के फैसलों को हर पक्ष का समर्थन मिलता रहा है। लेकिन यह संस्कार और परंपरा कांग्रेस के शासन में तो कायम रहती है लेकिन गैर-कांग्रेसी सरकार को इस मामले में विपक्ष का समर्थन नहीं मिल पाता है। यह कोई आज की परंपरा नहीं है बल्कि अटल सरकार के दौरान भी भारत की पाकिस्तान नीति को लेकर कांग्रेस ने जमकर बवाल काटा था और तत्कालीन पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को आगरा बुलाकर शांति समझौता करने के प्रयासों को लेकर सरकार पर इतना दबाव बनाया गया कि वह बैठक बिना किसी नतीजे के ही समाप्त हो गई। कारगिल युद्ध के दौरान भी विपक्ष ने ऐसा माहौल बनाने की कोशिश की मानो इसकी पूरी जवाबदेही अटल सरकार की ही हो। यहां तक कि उस दौरान ताबूत घोटाले की ऐसी कहानियां प्रचारित की गई मानो तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडीज ने शहीद सैनिकों के कफन का पैसा चोरी कर लिया हो। इसके लिये लंबे समय तक संसद में उन्हें विपक्ष द्वारा जलील किया गया और उनका बहिष्कार किया गया लेकिन मामला जब अदालत में पहुंचा तो ताबूत घोटाले की पूरी कहानी ही काल्पनिक निकली। एयर इंडिया के विमान अपहरण के मामले में भी पहले तो विपक्ष ने सरकार पर पुरजोर दबाव बनाया कि किसी भी तरह बंधक यात्रियों को छुड़ाया जाये और बाद में सरकार ने सर्वदलीय बैठक में आम सहमति कायम करके जब तीन आतंकियों को रिहा करने के एवज में बंधकों को छुड़ा लिया तो आतंकियों के सामने सरकार के घुटने टेक देने का आरोप लगाने की बेशर्मी भी विपक्ष ने ही दिखाई। इन दिनों जब केन्द्र में मोदी की अगुवाई में भाजपा की सरकार चल रही है तो उसके खिलाफ भी उसी ढ़र्रे पर काम हो रहा है जिसमें देशहित को नुकसान पहुंचाकर भी सरकार की छवि खराब करने की भरसक कोशिशें हो रही हैं। सेना के शौर्य और पराक्रम को धता बताते हुए सेना प्रमुख को गली का गुंडा बताया गया, सर्जिकल स्ट्राइक का सबूत मांगा गया और सरकार पर सैनिकों के खून की दलाली करने का आरोप लगाया गया। बालाकोट एयर स्ट्राईक के बाद भी कहा गया कि सेना ने तो जंगल में बम गिराये हैं। बाद में एयर स्ट्राइक में मारे गये आतंकियों की तादाद पूछी गयी और इसका सबूत मांगा गया। चुनाव के दौरान कहा गया कि सरकार अपने फायदे के लिये युद्ध का माहौल बना रही है। अब जम्मू कश्मीर के भारत में व्यावहारिक विलय के लिये अनुच्छेद 370 हटाये जाने को लेकर हाय-तौबा मचाई जा रही है। इन सबका सीधा फायदा पाकिस्तान को ही मिलता रहा है और आज भी मिल रहा है। उसे दुनिया के समक्ष खुद को मासूम, निर्दोष और शांतिप्रिय बताने और भारत पर युद्ध का माहौल बनाने का इल्जाम मढ़ने का बहाना मिल रहा है। लिहाजा जरूरत है कि विपक्ष एक बार फिर विचार करे कि वह मोदी विरोध के नाम पर इतना आगे जाकर देश के हितों को सुरक्षित करने के लिये लिये जा रहे फैसलों का विरोध करके आखिर क्या हासिल करना चाह रहा है। अगर विपक्ष ने अपनी गलती नहीं सुधारी तो बीते दो चुनावों में उसे जितनी दुर्गति झेलनी पड़ी है उससे अधिक आने वाले दिनों में भुगतने के लिये तैयार रहना होगा।