दोषी नहीं तो भागे क्यों..?






आईएनएक्स मीडिया मनी लान्ड्रिंग मामले में दिल्ली हाईकोर्ट से अग्रिम जमानत याचिका खारिज हो जाने के बाद जिस नाटकीय तरीके से पी चिदंबरम भूमिगत हो गए उससे सीधा सवाल यही उठ खड़ा हुआ कि अगर वे खुद को दोषी नहीं मानते तो सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय से डर कर छिपने की उन्हें जरूरत ही क्या थी? पूर्व केन्द्रीय वित्तमंत्री व गृहमंत्री के तौर पर मनमोहन सरकार में सबसे कद्दावर केबिनेट मंत्री रहे चिदंबरम को इतना तो पता ही है कि अगर जांच एजेंसियां ठान लेतीं तो उन्हें पाताल से भी रातोंरात उठा सकती थी। यहां तक कि आज जिस नाटकीय तरीके से कांग्रेस मुख्यालय में अवतरित होकर उन्होंने मीडिया के माध्यम से अपनी बात रखने और लोगों की सहानुभूति अर्जित करने की कोशिश की उसका मौका भी उन्हें नहीं मिल पाता और वहां से भी उन्हें उठाया जा सकता था। लेकिन अगर वे वहां से भी निकल भागने में कामयाब रहे तो इसमें उनकी कोई चतुराई नहीं है बल्कि यह जांच एजेंसियों की उस रणनीति का हिस्सा ही है जिसके तहत वह सीधे तौर पर उनकी इमानदारी की कलई खोल रही है। अगर हाई कोर्ट से अग्रिम जमानत याचिका खारिज होते ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता तो संभवतया उन्हें खुद को राजनीतिक बदले या विद्वेष का शिकार बताने में आसानी हो सकती थी।

 

 जांच एजेंसियों ने उनकी गरिमा का भी सम्मान किया और उन्हें यह मौका भी दिया कि वे खूद ही पूछताछ के लिये हाजिर हो जाएं और जांच में सहयोग करें। तभी तो मंगलवार की रात उनके घर पर जांच एजेंसी के अधिकारी उनसे मिलने पहुंचे थे और जब वे वहां नहीं मिले तो उनके दरवाजे पर यह नोटिस चस्पां किया गया कि दो घंटे में वे सीबीआई मुख्यालय आकर अपना पक्ष रखें। अगर सीबीआई को उन्हें गिरफ्तार करना होता तो सिर्फ चार अधिकारी उनके घर नहीं गए होते बल्कि पुलिस को लेकर सीबीआई की बड़ी टीम वहां जाती और उनकी गैरमौजूदगी में भी उनके घर की पूरी तलाशी लेती। ऐसे में चिदंबरम के लिये बेहतर होता कि वे सीबीआई की नोटिस के बारे में जानने के बाद पूछताछ का सामना करने के लिये चले गये होते। तब वे यह बताने के अधिकारी हो सकते थे कि वे जांच में पूरा सहयोग कर रहे हैं लिहाजा उन्हें सुप्रीम कोर्ट से भी जमानत आसानी से मिल सकती थी। लेकिन देश के सबसे बड़े वकीलों में शुमार होने वाले चिदंबरम ने यह मौका भी गंवा दिया और इसी का नतीजा रहा कि उन्हें आज सर्वोच्च न्यायालय से भी राहत नहीं मिल सकी।

 

हालांकि सर्वोच्च न्यायालय का रूख भांपने के बाद उन्होंने कांग्रेस मुख्यालय जाकर प्रेस को संबोधित करने का जो कदम उठाया वह एक तरह से सीबीआई के समक्ष उनका समर्पण ही था लेकिन वे ऐसी जगह और ऐसे माहौल में खुद को गिरफ्तार होता हुआ दिखाना चाह रहे थे ताकि जनसंवेदना बटोरी जा सके और खुद को पीड़ित के तौर पर प्रस्तुत किया जा सके। उन्होंने तो सपने में भी नहीं सोचा होगा कि कांग्रेस मुख्यालय में अवतरित होकर प्रेस को संबोधित करने के बाद उन्हें आसानी से वहां से निकलने का मौका मिल जाएगा। लेकिन ऐसा मौका उन्हें इस लिये मिला है ताकि देश के सामने उनका वह डर पूरी तरह सामने आ जाए जिसके कारण उन्हें गिरफ्तारी से बचने के लिये भूमिगत होना पड़ा। अब जबकि सर्वोच्च न्यायालय से भी राहत की कोई उम्मीद नहीं रह गयी है और हाई कोर्ट तो पहले ही उनके अग्रिम जमानत को खारिज करने के क्रम में अपने तीस पन्ने के फैसले में उन्हें सीधे तौर पर प्रथम दृष्टया दोषी बता दिया है तो अब बचने, छिपने या भूमिगत होने का कोई मतलब नहीं रह गया है। अब उन्हें पूछताछ का सामना भी करना पड़ेगा और गिरफ्तारी भी झेलनी ही पड़ेगी जिसमें कम से कम चैदह दिन ईडी और चैदह दिन सीबीआई को तो उन्हें हिरासत में रखने का मौका मिलेगा ही। यानी अगला एक महीना तो उनका सलाखों के पीछे ही कटने जा रहा है।

 

इसके बाद भी उन्हें ना तो जनसहानुभूति मिलेगी और ना ही उनकी बातों पर अब कोई यकीन करेगा। क्योंकि गिरफ्तारी से बचने और हाई कोर्ट से निराश होने के बाद सुप्रीम कोर्ट से अग्रिम जमानत हासिल करने की कोशिशों के बीच का वक्त उन्होंने जिस तरह से भूमिगत होकर बिताया और जांच एजेंसियों को चकमा देते हुए दिखाई पड़े उसके बाद अगर कांग्रेस की ओर से उन्हें निर्दोष बताने का प्रयास भी होगा तो आम लोग सीधे यही पूछेंगे कि अगर उनके मन में चोर नहीं था तो वे गिरफ्तारी के भय से भागे क्यों? सच पूछा जाये तो अगर वे भागने के बजाय अपने डर का डट कर सामना करते और पूछताछ व जांच में सहयोग करते तो आम लोगों के काफी बड़े वर्ग को एकबारगी यह एहसास अवश्य होता कि मोदी सरकार द्वारा बदले की राजनीति के तहत उन्हें फंसाया जा रहा है। ऐसे में तमाम गैर भाजपाई राजनीतिक दल व धुर भाजपा विरोधी ताकतें निश्चित ही उनके समर्थन में सामने आकर सरकार की ऐसी कड़ी मुखालफत करते कि उसका जवाब देना सत्ता पक्ष को भारी पड़ जाता। लेकिन गिरफ्तारी के डर से भूमिगत होकर चिदंबरम ने वह मौका खो दिया। सच पूछा जाये तो राजनीति परसेप्शन यानी अवधारणा का ही खेल है। सीबीआई व ईडी की जांच कब तक मुकाम पर पहुंचेगी और इसके बाद अदालत का इस पर क्या फैसला आएगा वह तो बाद की बात है। उसमें अभी लंबा समय लगना है। लेकिन इसको लेकर राजनीतिक अवधारणा की लड़ाई में चिदंबरम निश्चित ही हिट विकेट हो गए हैं और जनता की अदालत में उन्हें अब कोई इमानदार या निर्दोष मानने के लिये शायद ही तैयार हो।