इंद्रधनुष





                                             ( कहानी )

(डॉ. रंजना वर्मा)

पानी अभी-अभी बरस कर निकल चुका है । धूमिल वातावरण पर बिखरे हुए सुरमई बादलों के दल अभी भी यहां वहां अपनी छाया बिखेर रहे हैं । उजले और सुरमई बादलों के टुकड़ों की ओर आधा इंद्र धनुष उग आया है । टूटा हुआ , मध्यम रंगों वाला यह इंद्रधनुष ।

              उस दिन भी ऐसा ही इंद्रधनुष उगा था । ऐसा ही भीगा भीगा मौसम था और सड़क पर ऐसी ही रेल पेल थी । परंतु.......  कितना अंतर है आज में और उस दिन में । तब मेरे होठ हंसी से भीगे हुए थे । हर तरफ मेरे नन्हे राजू की मुस्कुराहट अपनी मधुरता बिखेरती रहती ....  और आज ....... आज मेरा सब कुछ लुट चुका है । मेरे अधरों पर खामोशी की सील जड़ दी गई है । मेरा राजू .....

                 शाम का समय यूं भी नगरों में भीड़ भरा होता है । स्कूलों के बच्चे और दफ्तरों के बाबू लोग , और भी तफरीह के लिए निकलने वाले अनगिनती लोग । सब मिलकर अच्छा खासा मजमा सा लगा देते हैं हर कहीं । 

                   जब भी संध्या समय रेलिंग के पास खड़ी होकर नीचे दूर तक नागिन सी बल खाती तारकोल की काली सड़क को और उस पर बिखरी भीड़ को देखती हूं तब राजू का मासूम सा प्रश्न जेहन में कौंध उठता है -

"इतने लोग कहां से आते हैं माँ ? हे राम , इतने सारे लोग ? कितनी मोटरें , कितनी साइकिलें ...."

                 सामने का चौराहा हमारी छत से बहुत दूर नहीं है । एक दिन जलती हुई लाल हरी बत्तियों को विस्मय से देखते हुए उसने पूछा था -

"माँ ! यह लाल पीली और हरी बत्तियां क्यों जलती बुझती रहती हैं बार बार ?"

                मैंने उसे जब उन बतियों के जलने बुझने का अर्थ समझाया तो देर तक खड़ा होकर वह उनका जलना बुझना और उसी के अनुसार ट्रैफिक का रुकना , बढ़ना देखता रहा था । मैंने उसे सावधान किया था -

"बेटे ! लाल बत्ती जलने पर कभी सड़क पार मत करना ।"

                 आज्ञाकारी बेटे ने मेरी वह बात मान भी ली थी लेकिन .... उस दिन ... हां , उस दिन भी ऐसा ही भीगा भीगा मौसम था । वातावरण में अजीब सी सोंधी सोंधी गंध व्याप्त हो गई थी । आकाश पर ऐसा ही इंद्रधनुष उग आया था , लेकिन वह आज की तरह टूटा हुआ नहीं था । पूरा चटक रंगों वाला था वह ।  उसे देख कर मेरे पास खड़ा नन्हा राजू किलक उठा था -

"माँ ! देखो तो , कैसा प्यारा इंद्रधनुष है । कितने अच्छे रंग है इसमें । है न मां !"

"हां , बेटे !" 

                मैंने शांत स्वर में उत्तर दिया । उनके आने का समय हो चुका था । राजू को तैयार करके मैं स्वयं तैयार हो रही थी । केतली में चाय का पानी उबल रहा था ।  आज हमें राजू की वर्षगांठ के लिए उपहार लाने के लिए बाजार जाना था । मेरे हाथ शीघ्रता से काम निपटा रहे थे । अस्त-व्यस्त पड़े सामान को व्यवस्थित करती मैं राजू को आदेश दे रही थी -

"ध्यान रखना बेटा ! पापा आते होंगे 

तुम्हारे । जैसे ही वे आते दिखाई दें मुझे बता देना ।"

"अच्छा माँ !" 

             कह कर राजू मेरे आदेश का पालन करते हुए रेलिंग पकड़कर बड़ी उत्सुकता से सड़क पर उमड़ते भीड़ के सैलाब को देख रहा था । अचानक वह चीखा 

-

"माँ ! पापा आ रहे हैं । पापा...."

                   इससे पहले कि मैं उससे कुछ कहती वह दौड़ता हुआ सीढ़ियों से नीचे उतर गया । मैं दौड़ कर बालकनी में पहुंची और रेलिंग के पास से देखा तो राजू नीचे सड़क पर भागता दिखाई दिया ।

"राजू ...."

                 मैने चिल्लाकर उसे आवाज दी परंतु उस कोलाहल में मेरी पुकार कहीं खो कर रह गई । राजू के चौराहे तक पहुंचते-पहुंचते लाल बत्ती जल उठी ।

              चौराहे के उस पार मेरे पति साइकिल रोक कर खड़े हुए दिखाई दे रहे थे । राजू दौड़ता हुआ सड़क पार करने लगा । यह देख कर मेरा रोम-रोम सिहर उठा । अचानक एक चीख वातावरण में फैल गई ।

              अपने पापा से मिलने के जोश में नन्हे राजू को ध्यान ही नहीं रहा था कि चौराहे की लाल बत्ती उसे रुकने का संकेत कर रही थी । सड़क के बीचो बीच राजू का रक्तरंजित निर्जीव शरीर लाल बत्ती से होड़ कर रहा था । मेरी आंखें आंखों के आगे अंधेरा छा रहा था । सब कुछ डूब रहा था । खो रहा था । आसमान में उगा  इंद्रधनुष भी धुंधलाने लगा था । और .....  और.... ....