सो गई सियासत की सुषमा






शब्दकोष को खंगालें तो सुषमा का अर्थ होता है परम शोभा, अत्यन्त सुन्दरता,  विशेषतः नैसर्गिक शोभा या प्राकृतिक सौन्दर्य। इस लिहाज से तुलना करें तो सुषमा स्वराज के चिर निद्रा में लीन होकर पंचतत्व में विलीन होने जाने के बाद वाकई सियासत की शोभा, सुंदरता और सौन्दर्य में जो कमी महसूस हो रही है उसकी भरपाई कर सकने की क्षमता फिलहाल किसी में नहीं दिखती है। सुषमा को प्रकृति ने गढ़ा ही था राजनीति के लिये वर्ना महज किसकी नियति ऐसी होती है कि उसे महज 25 साल की उम्र में प्रदेश सरकार का केबिनेट मंत्री बनने का सौभाग्य मिले। लेकिन सुषमा को वह मौका मिला तो उन्होंने उसे साध्य समझने के बजाय साधन बना लिया और उस नींव पर अपने व्यक्तित्व और कृतित्व का ऐसा विशाल, दिव्य व भव्य महल खड़ा कर दिया जिसके समक्ष बाकी तमाम ऊंची से ऊंची अट्टालिकाओं की दीप्ति फीकी दिखाई पड़ती है। सुषमा की जो बात उन्हें बाकियों से अलग करती है वह उनकी सत्य, संवेदना और मूल्यों पर आधारित सियासत करने की जिद जिसे उन्होंने अपने अंतिम वक्त तक नहीं छोड़ा। वे डटी रहीं अपने मूल्यों पर और सत्ता के मायाजाल में ना तो उलझीं, फंसी और ना ही उसकी चकाचैंध में भ्रमित हुईं। कहते हैं कि कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। लिहाजा लोग क्या कहते हैं इसकी परवाह उन्होंने कभी नहीं की। अगर परवाह की होती तो अपने स्वास्थ्य को देखते हुए बिना किसी से परामर्श किये वगैर स्वघोषित तौर पर सक्रिय राजनीति से सन्यास लेने की पहल उन्होंने नहीं की होती। वह भी तब जबकि केन्द्र की मौजूदा मोदी सरकार में उनकी पीढ़ी के चंद गिने-चुने नेताओं में भी अधिकांश की हिम्मत नहीं हुई कि वे कभी सीधे तौर पर किसी भी मामले में सुषमा से मतभेद जता सकें या उनके किसी फैसले का विरोध कर सकें। सुषमा ने राष्ट्र प्रथम, संगठन दोयम और स्वहित अंतिम मानने की नीति का अनुपालन करते हुए देश हित के लिये पार्टी को अपना राय बदलने पर मजबूर करने से भी परहेज नहीं बरता और देश व पार्टी के हितों का रक्षण करने में अपने स्वास्थ्य को आड़े आता हुआ देखने के बाद खुद को शासन व संगठन की पूरी व्यवस्था से अलग करने में भी जरा सी हिचक नहीं दिखाई। हालांकि इस बार लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान करके सुषमा ने मोदी सरकार व भाजपा संगठन के शीर्ष संचालकों के उस अहम को चोट भी पहुंचाया जिसके तहत वे खुद को भाजपा के हर छोटे-बड़े कार्यकर्ता का भाग्यविधाता समझ रहे थे और उनको कुछ वक्त के लिये यह अहंकार हो गया था कि किसी के भी बारे में कोई भी फैसला करने का हक उन्हें ही है। उनकी मर्जी के बिना कोई कार्यकर्ता अपने बारे में भी कोई फैसला नहीं कर सकता और अगर वह ऐसा करने की जुर्रत करता है तो इसे वे लोग अनुशासनहीनता के नजरिये से देखने लगे थे। लेकिन जिस सुषमा ने हमेशा ही अपने शर्तों पर राजनीति की हो और बात जब विचारों के टकराव की आ गई हो तो जिन्होेंने अपने पितातुल्य मार्गदर्शक लालकृष्ण आडवाणी की राय से भी असहमति जताते हुए देश व संगठन के हित में नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनवाने में निर्णायक भूमिका निभाई हो उनसे यह उम्मीद करना कि वे मौजूदा दौर के नेताओं की कृपा पर निर्भर होकर अपनी राजनीति आगे बढ़ाएंगी, इससे बड़ी अहमकाना सोच व समझ दूसरी नहीं हो सकती। भले उनके लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने के फैसले से तमाम लोग नाराज हुए हों लेकिन उन्होंने अपना फैसला नहीं बदला और ना सिर्फ चुनावी राजनीति से खुद को अलग कर लिया बल्कि दोबारा मोदी सरकार बनने के बाद पिछले दरवाजे से सरकार में शामिल होने के प्रति भी कतई दिलचस्पी नहीं दिखाई। बल्कि उन्होंने तो बिना नोटिस के ही सरकारी बंगला खाली कर दिया और अपने निजी फ्लैट में अपना बसेरा बना लिया। ऐसी ही थीं सुषमा जो अपनी बातों पर दृढ़ता के लिये जानी जाती थी। उन्होंने सत्य, सिद्धांत व संवेदना को अपनी सियासत के साथ इतनी मजबूती से जोड़ा हुआ था कि उनकी मौत के बाद पाकिस्तान से आई मूक-बधिर गीता से लेकर यमन से बचाए गए हिन्दुस्तानी व पाकिस्तानी नागरिकों के अलावा हजारों की तादाद में उन लोगों ने बेलाग लहजे में सार्वजनिक तौर पर कहा है कि उनके गुजर जाने के बाद वे खुद को अनाथ महसूस कर रहे हैं। यह सुषमा का ही करिश्मा था कि विदेश मंत्रालय को उन्होंने आम लोगों की सेवा से सीधे तौर पर जोड़ दिया और विदेशों में रह रहे भारतीयों के स्वास्थ्य, सुरक्षा व न्याय की मांग से जुड़ी एक पुकार पर उनका पूरा विभाग लोगों की सेवा के लिये प्रस्तुत हो जाता था। वह सुषमा ही थीं जिनको केवल मीडिया के साथ खबरों का रिश्ता नहीं रखना था बल्कि उन्हें इस बात की भी चिंता रहती थी कि उनके माध्यम से अगर किसी को कोई खबर मिल रही है तो वह गलत या मिलावटी ना हो। साथ ही उन्हें इस बात की भी चिंता रहती थी कि दिन-रात खबरों की तलाश में भटकनेवाले मीडियाकर्मी उनके कार्यालय से कभी बिना कुछ खाए-पिये ना जाएं। सुषमा ने तो निजी तौर पर पहल करके भाजपा के नियमित संवाददाता सम्मेलन के बाद परोसे जानेवाले नाश्ते का मेन्यू भी बनवा दिया था और पत्रकारों से पूछ कर उनकी पसंद के पकवानों व मिठाइयों को उसमें शामिल किया गया था। उनकी शख्सियत ही ऐसी थी कि एक बार कोई उनसे मिल ले तो उनका मुरीद हुए बिना नहीं रह सकता था। तभी तो प्रखर व मुखर वक्ता के नाते विरोधियों की जमकर खबर लेनेवाली सुषमा के गुजर जाने का समाचार मिलने के बाद हर राजनीतिक पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को ऐसा ही महसूस हुआ जैसे उनका ही कोई बेहद करीबी अब इस दुनिया से उठ गया हो। सामान्य गृहणी की तरह उनका तीज मनाना और बिंदी-साड़ी-सिंदूर के साथ एक अलग पहचान बनाना भारतीय मूल्यों को भी दर्शाता रहा और भारत की एक सामान्य महिला की क्षमता और दक्षता की भी वो प्रतीक बनी रहीं। उनके जाने से सियासत की वह धारा सूखती हुई दिख रही है जो सत्य, संवेदना और सिद्धांतों की त्रिवेणी से ताकत पाती हो। लेकिन इस बात का संतोष अवश्य रहेगा कि धारा 370 को हटाने के लिये पूरा जीवन संघर्ष करनेवाली सुषमा ने इसे हटते हुए भी देखा और शायद वही खुशी उनका दिल संभाल नहीं सका।