नजरियां बदलना ही काफी है जीवन में कुछ पाने के लिए








(डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा)

आधुनिक जीवन शैली और मारकाट भरी प्रतिस्पर्धा के चलते लोगों के सोच में काफी बदलाव आया है और यही बदलाव तेजी से समाज की दशा और दिशा में बदलाव का कारण बनता जा रहा है। दरअसल बात भले ही पुरानी हो और उदाहरण भी पुराना हो पर यह आज भी अपने आप में मायने रखता है। देखा जाए तो हमारे सोच पर बहुत कुछ निर्भर करता है। मनोविज्ञानी व सामाजिक सरोकारी समान रुप से पानी के गिलास का उदाहरण देकर समझाते है कि आधे भरे हुए पानी के गिलास को आप किस तरह से देखते हैं। इसे हम आधा खाली गिलास भी कह सकते हैं तो दूसरी तरह से इसे आधा भरा हुआ गिलास भी कहा जा सकता है। दोनों के निहितार्थ यही है कि गिलास मेें जो पानी भरा हुआ है वह आधा है। पर इसे लेकर हमारी सोच अवश्य स्पष्ट हो जाती है कि हमारी सोच की दिशा क्या है? यही स्थिति परिस्थितियों की होती है जीवन में जो कुछ हमें प्राप्त हो रहा है और जो कुछ हम प्राप्त नहीं कर पा रहे हैं उसके प्रति हमारी सोच क्या व कैसी है, इस पर बहुत कुछ निर्भर करता है। हांलाकि सीधे सीधे किसी से यह कहा जाता है कि हमें हमारी सोच का दायरा बड़ा रखना चाहिए और हमेशा सकारात्मक सोच से जीवन को अच्छा जीवन बनाया जा सकता है पर जब हम सीधे सीधे किसी को यह बात कहते हैं तो निराशा में डूबा व्यक्ति इसे आदर्शवादी मानकर नकारने की कोशिश करता है। पर वास्तव में ऐसा है नहीं। दुनिया के देशों में मनोविज्ञानी और समाजविज्ञानी व्यक्ति के सोच के तरीके का अध्ययन कर रहे हैं और जो परिणाम सामने आ रहा है वह यह कि यदि सोच में थोड़ा से बदलाव कर लिया जाए तो आज की डिप्रेशन, निराशा, कुंठा, आक्रोश और इनके परिणाम स्वरुप होने वाली शारीरिक व मानसिक व्याधियों से आसानी से मुक्ति पाया जा सकता है। 
वॉस्टन यूनिवर्सिटी के करीब दस साल तक किए गए एक अध्ययन से यह परिणाम सामने आया है कि सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति दीर्घायु और जीवन में अधिक सफल होते हैं। यहां तक कि सकारात्मक सोच के चलते व्यक्ति लंबी उम्र भी जीते हैं। 41 से 90 साल की आयु के पुरुषों और 58 से 86 साल की वय की महिलाओं के अध्ययन में यह सामने आया है कि सकारात्मक सोच से ंिजंदगी की डोर को लंबी खींचा जा सकता है। दर असल भागम-भाग की इस जिंदगी में जब निराशा हाथ लगती है या दूसरे को कुछ अच्छा करते हुए देखते है तो जो रिएक्शन हमारे दिलो दिमाग में आता है वहीं डिप्रेशन, कुंठा या आक्रेाश का कारण बनता है। दूसरे से इर्षा ही मुख्य कारण है और हमें इसे स्वीकारना ही होगा। सबसे दुखद यह है कि एक समय व्यक्ति को नेक करने और सादा जीवन उच्च विचार की शिक्षा दी जाती थी वहीं आज ऐन केन प्रकारेण जीवन में अधिक से अधिक पाने और संजोने की भावना आ रही है और इसी के कारण दुनिया भर की बीमारियां पालने लगे हैं। अध्ययन में यह साफ हो गया है कि जिन्होंने सकारात्मक सोच रखी या जीवन को आशावादी सोच के साथ देखने की कोशिश की वे निराशा या कुंठा से दूर रहे हैं। यही कारण है कि जीवन का सकारात्मक सोच ही उन्हें स्वस्थ्य व दीर्घायु बनाने में सफल रहा है।
आज युवाआंें में डिप्रेशन, हाई ब्लड प्रेशर, हार्ट बीट बढ़ने, शुगर या यों कहें कि मानसिक दबाव के कारण होने वाली बीमारियां तेजी से युवाओं को आगोश में लेती जा रही है। यह भी एक सत्य है कि नैराश्य के कारण आत्म हत्याओं को सिलसिला आम होता जा रहा है। दरअसल जीवन में संघर्ष करने का माद्दा ही खत्म होता जा रहा है। ऐसे में इन सबसे बचने के लिए लाखों रुपए खर्च कर ध्यान केन्द्रों, योगा क्लासेज और डॉक्टरों के चक्कर लगाने के लिए तो हम तैयार रहते हैं पर केवल हमारी जीवन शैली और सोच की दिशा बदलने को हम तैयार नहीं होते और इसी कारण युवाओं में आक्रोश, रोड रेज, दुर्घटनाओं और अपराधों का ग्राफ दिन -प्रतिदिन  बढ़ता जा रहा है। दरअसल सबके साथ हमारी दिनचर्या में भी तेजी से बदलाव अया है। एक समय जल्दी सोने और जल्दी उठने की जो हमारी परंपरा थी वह खत्म होती जा रही है। टीवी ने भी बहुत कुछ हमारी सोच को बदला है। दिशाहीन सीरियलों की बाढ़ सी आ गई है। संदेशपरक बातें तो आज दूर की चीज होती जा रही है। बच्चे के पैदा होते ही उसे प्रतिस्पर्धा में ड़ालने की हमारी आदत हो गई है। इससे मां-बाप के साथ ही बच्चे भी अजीव कुंठा या यों कहें कि दबाव में जीवन जीने लगते हैं और अंधी प्रतिस्पर्धा के चलते स्वस्थ्य प्रतिस्पर्धा का स्थान संघर्ष ले लेता है और इस संघर्ष का कहीं अंत नहीं दिखाई देता। ऐसे में समाज के किसी एक व्यक्ति या एक हिस्से को सुधारने या सोच में बदलाव से काम नहीं चलेगा अपितु समग्र बदलाव की आवश्यकता है और इसके लिए जीवन के मानकों को पुनर्स्थापित करना होगा। नैतिकता जो आज किताबों की बात रह गई है उसे जीवन में अपनाना होगा। कुछ नहीं पाने पर निराशा की जगह दुबारा प्रयास और विफलता के कारणों को खोज कर हल ढूंढना होगा। दरअसल समय रहते हमारे सोच और मानसिकता में बदलाव की दिशा में मनोविज्ञानियों व समाज विज्ञानियेां ने कोई हल नहीं खोजा तो वह दिन दूर नहीं जब समाज में केवल और केवल कुंठा और निराशा ही रह जाएगी। ऐसें में वॉस्टन यूनिवर्सिटी का हालिया शोध निश्चित रुप से समाज को दिशा देने वाला है। हमें हमारे सोच को सकारात्मक बनाना होगा तभी कुछ हासिल कर पाएंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि यह हमारी शाश्वत परंपरा का हिस्सा रहा है  इसलिए सकारात्मक सोच हमारी पहचान बनेगा।