न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की उठती आवाज

(विष्णुगुप्त)


न्यायपालिका में भ्रष्टाचार एक यक्ष प्रश्न रहा है। अब यह देखने आ रहा है कि न्यायपालिका के अंदर से ही भ्रष्टाचार से मुक्ति के लिए आवाज उठ रही है। जब न्यायपालिका के अंदर से ही भ्रष्टाचार की आवाज उठेगी तब यह उम्मीद की जा सकती है कि आम लोगों को आसानी से न्याय मिलेगा और साथ ही साथ बडी भ्रष्ट मछलियां भी सलाखों के पीछे जाने के लिए विवश होंगी। अब तक की स्थिति यही रही है कि न्यायपालिका भी बडे और पहुंच वाले लोगों को राहत दे देती हैं, कारण जो भी हो पर इससे छवि न्यायपालिका की ही खराब होती है। भारत के वर्तमान प्रधान न्यायधीश रंजन गोगई खुद न्यायपालिका के अंदर में भ्रष्टचार से न केवल चिंतित हैं बल्कि उन्होंने न्यायपालिका के शीर्ष स्तर पर भ्रष्टचार को समाप्त करने के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को पत्र भी लिख चुके हैं। इलाहाबाद के भ्रष्ट न्यायधीश एसएन शुक्ला पर अभियोग चलाने और उन्हें हटाने की संसदीय कार्यवाही शुरू नहीं होने पर चिंता भी प्रधान न्यायधीश रंजन गोगई जता चुके हैं। वर्तमान में न्यायपालिका के अंदर में भ्रष्टचार को समाप्त करने, अक्षम और पक्षपाती न्यायधीशों को हटाने की कोई आसान प्रक्रिया नहीं है, प्रक्रिया इतनी जटिल और टेढी-मेढी है कि लंबा समय लग जाता है और फिर भ्रष्टाचार और पक्षपाती के आरोपी न्यायधीश संरक्षण प्राप्त कर लेते हैं। वर्तमान कोलिजियम सिस्टम पर भी प्रश्न खडा हुआ है। पर खुद सुप्रीम कोर्ट वर्तमान कोलिजियम सिस्टम को छोडने या फिर इसमें संशोधन के लिए तैयार नहीं है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने वर्तमान में लागू कोलिजियम सिस्टम को समाप्त कर पारदर्शी सिस्टम बनाने की कोशिश की थी, जिस पर खुद सुप्रीम कोर्ट ने चाबूक चला दिया था। कहने का अर्थ यह है कि सरकार और सुप्रीम कोर्ट खुद अपने-अपने प्रभाव को लेकर अडियल और संरक्षणवादी रूख छोडने के लिए तैयार नही है तो फिर न्यायपालिका के अंदर भ्रष्टचार और पक्षपात का प्रश्न कैसे हल होगा?
न्यायपालिका में भ्रष्टचार और पक्षपात के प्रश्न कैसे-कैसे हैं, यह जानकर हर कोई को हैरानी होती है और यह स्थापित होता है कि न्यायालिका के अंदर न्याय विकता है, बडे लोग न्याय को खरीद लेते हैं, पैसे और पहुंच वालों की गर्दन नापने में न्यायपालिका विफल रहती है। यह सभी प्रश्न कोई आम आदमी नहीं उठता है, यह प्रश्न कोई संगठन नहीं उठता है, यह प्रश्न कोई सरकार नहीं उठाती है, अगर ऐसे प्रश्न कोई आम आदमी उठायेगा, अगर ऐसे प्रश्न कोई संगठन उठायेगा, ऐसे प्रश्न कोई पार्टी उठायेगी, ऐसे प्रश्न कोई सरकार उठायेगी तो उसे सजा भुगतने के लिए बाध्य होना पडेगा। न्यायापालिका के पास अवमानना का अधिकार है, अवमानना का अधिकार ही वह ढाल है जो भ्रष्ट और पक्षपाती न्यायधीशों को संरक्षण देता है, उनके भ्रष्टचार और पक्षपात के खिलाफ आम लोगो को बोलने से रोकता है। अगर कोई व्यक्ति, कोई संगठन,कोई पार्टी किसी न्यायधीश पर फैसले देने में भ्रष्टचार, कदाचार और पक्षपात का आरोप लगायेगा तो उसे अवमनना का दोषी माना जायेगा। अवमानना का दोषी कौन होना चाहेगा। यही कारण है कि विधायिका, कार्यपालिका के भ्रष्टाचार और कदाचार के खिलाफ खुलेआम अभियान चलता है, खुलेआम आरोप लगाया जाता है पर इस तरह के आरोप और अभियान न्यायपालिका के खिलाफ चलता ही नहीं है और न चल पायेगा? लोकतंत्र के चार स्तंभों में कार्यपालिका, विधायिका मीडिया और न्यायपालिका शामिल है। लोकतंत्र के इन चार स्तंभों में सिर्फ और सिर्फ न्यायपालिका को ही ऐसा संरक्षणवाद हासिल है।
न्यायपालिका के अंदर भ्रष्टचार और कदाचार के खिलाफ न्यायपालिका के अंदर से ही उठती आवाज को देख लीजिये। कभी सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ न्यायधीश मार्कडेय काटजू ने न्यायधीशों के भ्रष्टचार और कदाचार को लेकर बहुत ही तल्ख और आखें खोलने वाली टिप्पणी की थी, सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि इस टिप्पणी को अपने फैसले मे शामिल किया था। मार्कडेय काटजू ने अपने एक फैसले में कहा था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट में फैसला विकता है, खरीददार अपने अनुसार न्याय खरीद लेते हैं। मार्कडेय काटजू का यह फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायधीशों के खिलाफ था पर उनका यह फैसला और यह टिप्पणी पूरी न्यायपालिका पर लागू होती है। न्यायपालिका का कौन हिस्सा मार्कडेय काटजू के फैसले और टिप्पणी से अलग हो सकता है? जब न्यायपालिका के शीर्ष संगठन सुप्रीम कोर्ट में ही यह बात मान ली गयी कि न्यायधीश फैसले बेचते हैं, न्याय की हत्या करते हैं तो फिर न्यायपालिका की छवि पर कंलक कैसे नहीं लगता है, न्यायपालिका की छवि खराब कैसे नहीं होती है। चिंताजनक बात तो यह है कि मार्कडेय काटजू का वह फैसला आज भी अडिग है। पर कुछ प्रश्न ऐेसे हैं जिस पर सुप्रीम कोर्ट की व्यवस्था की घेरे में आ जाती है। पहला प्रश्न यह कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला कौन-कौन न्यायधीश बेचते हैं, कौन-कौन लोगों ने न्यायधीशो के ईमान और आत्मा खरीदी थी, सुप्रीम कोर्ट की आंतरिक निगरानी व्यवस्था फैसला बेचने वाले न्यायधीशों की गर्दन क्यों नही नाप सकी? वैसे विकाउ न्यायधीशों के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट ने कौन सी कार्यवाही की, यह किसी को नहीं मालूम है। निश्चित तौर पर फैसला बेचने वाले न्यायधीश दंड भोगने से बच गये। सुप्रीम कोर्ट से कौन पूछ सकता है कि फैसला बेचने वाले इलाहाबाद हाई कोर्ट के जजों के खिलाफ कार्यवाही क्यों नहीं हुई। 
अभी-अभी पटना हाईकोर्ट के ईमानदार जज राकेश कुमार का प्रसंग सुर्खियों में शामिल है, राकेश कुमार का प्रसंग न केवल मीडिया की जबरदस्त सुर्खियां रही हैं बल्कि सोशल मीडिया में भी जबरदस्त समर्थन हासिल हुआ है। एक तरह से जज राकेश कुमार ने न्यायपालिका को भ्रष्टचार के कठधरे में खडा कर दिया है। पटना हाइकेर्ट के वरिष्ठ न्यायधीश राकेश कुमार ने अपने एक फैसले में कह दिया कि बडे लोगों को दंडित करने में न्यायधीश कदाचार और भ्रष्टचार में शामिल हो जाते हैं। उन्होने यहां तक कह दिया कि बडे लोगों को लाभ पहुंचाने के लिए न्यायपालिका के जज और अन्य स्टाफ कुछ भी करते हैं। एक भ्रष्ट आईएस अधिकारी केपी रामय्या को की अग्रिम जमानत पटना हाईकोर्ट ने खारिज कर दी थी। पटना हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ केपी रामय्या सुप्रीम कोर्ट गये थे। सुप्रीम कोर्ट ने भी केपी रामय्या को अग्रिम जमानत देने से मना कर दिया था। पर निचली अदालत ने केपी रामय्या को जमानत दे दी थी। जब पटना हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक ने जमानत खारिज कर दी थी तब निचली अदालत के जज केपी रामय्या को बेल कैसे दे सकते हैं। निश्चित तौर पर बेल देने वाले जज पर कार्यवाही होनी चाहिए। जस्टिस राकेश कुमार ने कई अन्य प्रसंग भी उठाये हैं। इस ईमानदारी के लिए राकेश कुमार की प्रशंसा होनी चाहिए थी। पर पटना हाईकोर्ट के जस्टिस राकेश कुमार की ईमानदारी पर चाबुक चल गया। पटना हाईकोर्ट के नौ जजों के बेंच बैठी और जस्टिस राकेश कुमार के फैसले पर चाबुक चला दी। जबकि पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस द्वारा केपी रामय्या को बेल देने वाले जजों पर कार्यवाही होनी चाहिए। इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस रंगनाथ पांडेय ने सुप्रीम कोर्ट की कोलिजियम सिस्टम को ही भ्रष्टचार और कदाचार की जड मान लिया है। जस्टिस रंगनाथ पांडेय ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को एक पत्र लिखा था उस पत्र मे उन्होंने कहा था कि बहुत सारे जजों को कानूनी प्रक्रियाओं को क ख ग तक नहीं मालूम नहीं होता है, सामान्य कानूनी ज्ञान से भी ये अनभिज्ञ होते हैं फिर कोलिजियम के सदस्यों की इच्छा पर न्यायधीश बन जाते हैं और इस प्रकार से न्याय की हत्या होती है। न्यायधीश परिवार का सदस्य होना ही न्यायधीश बनने की योग्यता निर्धारित कर देता है। जस्टिस रंगनाथ पांडेय की यह पीडा न्यायपालिका की पूरी व्यवस्था को आम जन के सामने रख दिया था।
सच तो यह है कि जैसे लोकतंत्र के स्तंभों कार्यपालिका, विधायिका और मीडिया की छवि गिरी है वैसे ही न्यायपालिका की छवि भी भ्रष्टचार, कदाचार और वंशवाद से मुक्त नहीं है। आम आदमी जब कोर्ट कचहरी जाता है तो वह खुली आखों से देखता है कि जज की कुर्सी के नीचे बैठा हुआ पेशकार सरेआम रिश्वत लेता है। वकील से लेकर मुंशी तक रिश्वत देते हुए सरेआम देखे जा सकते हैं। ऐसे स्ट्रिंग आपरेशन भी सामने आ चुके हैं। जब तक न्यायपालिका के अंदर मार्कडेय काटजू, राकेश कुमार और रंगनाथ पांडेय जेसे ईमानदार और जनपक्षीय न्यायधीश होगे तब तक उम्मीद होती है कि न्यायपालिका के अंदर में भ्रष्टचार, कदाचार और वंशवाद के खिलाफ अभियान जारी रहेगा


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