समाजसेवा की आड़ में मेवा का जुगाड़






मोदी सरकार के कार्यकाल में जिस कारोबार पर सबसे अधिक सख्ती दिखाई गई है और उसे नियम-कानून के जंजीरों में बांधने का प्रयास किया गया है उसमें गैरसरकारी समाजसेवा यानी एनजीओ का क्षेत्र भी शामिल है। वास्तव में देखा जाये तो आम लोगों के बीच जिन क्षेत्रों को सबसे अधिक भ्रष्ट माना जाता है उसमें एनजीओ क्षेत्र का नाम भी है। इसकी वजह भी यही है कि अधिकांश एनजीओ सेवा की आड़ में मेवा लूटने के काम में ही लगे रहे हैं। एक ओर से विदेश से लेकर सरकार तक से फंड जुटाते हैं और दूसरी ओर विकास की योजनाओं में बाधा व अड़ंगा डालने का कोई भी मौका गंवाना गवारा नहीं करते। बेशक इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इमानदारी से देश, समाज व आम लोगों की सेवा करनेवाले ऐसे एनजीओ की भी कोई कमी नहीं है जो बेहद सीमित संसाधनों के बावजूद बेहतरीन काम कर रहे हैं। लेकिन बहुतायत एनजीओ ऐसे ही हैं जिनका काम विशुद्ध रूप से दलाली का ही है। इसकी सबसे ताजा मिसाल इन दिनों मुम्बई में देखी जा रही है जहां आरे के जंगलों को बचाने के नाम पर मेट्रो प्रोजेक्ट में अड़ंगा डालने की भरसक कोशिशें हो रही हैं। इस आंदोलन को इतना बड़ा बना दिया है कि आज आरे का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं रह गया है। कल तक जिन लोगों ने इसका नाम भी नहीं सुना था वे भी इस मसले पर चर्चा करते दिख रहे हैं। यहां तक कि मुम्बई की पहचान कहे जानेवाले फिल्म इंडस्ट्री के दिग्गज भी इस विवाद से अलग नहीं रह पाए हैं और अमिताभ बच्चन सरीखे सदी के महानायक ने भी जब मेट्रो की हिमायत करते हुए आरे के पक्ष में आंदोलन चलाने वालों का साथ नहीं दिया तो उनकी बड़े पैमाने पर आलोचना की गई। लेकिन इस पूरे विवाद को अगर गहराई से परखा जाये तो इसे हवा देने के पीछे सीधा मकसद दलाली का ही नजर आता है। विवाद इस बात को लेकर खड़ा किया गया है कि मेट्रो की पार्किंग का शेड बनाने के लिये आरे के 2700 पेड़ों को काटने की इजाजत क्यों दी गई। कहा जा रहा है कि ऐसा करने से आरे का जंगल तबाह हो जाएगा और वहां पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचेगा। दरअसल गोरेगांव में स्थित आरे कभी 3 हजार एकड़ जमीन तक फैला हुआ था लेकिन अब यह केवल 1300 एकड़ तक ही सीमित हरित क्षेत्र है जो शहर का ग्रीन लंग कहलाता है। आरे जंगल संजय गांधी नैशनल पार्क का हिस्सा है और समृद्ध जैव विविधता के जरिए मुंबई के पूरे इकोसिस्टम को सपॉर्ट करता है। इस जंगल में अलग-अलग प्रकार के पक्षी, जीव-जंतु और तेंदुए के अलावा 1027 जनजातीय लोग भी रहते हैं। ऐसे में अगर यह पता चले कि महानगरपालिका यानी बीएमसी और प्रदेश की सरकार इसका विध्वंस करने पर आमादा है तो इसका व्यापक विरोध होना लाजिमी ही है। तभी तो सुर सम्राज्ञी लता मंगेशकर से लेकर अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरणविद् बेयर ग्रिल्स सरीखे लोग भी आरे बचाओ आंदोलन के समर्थन में कूद गए नतीजन आंदोलन का व्यापक विस्तार हो गया। लेकिन वास्तव में देखा जाये तो यह पूरा विरोध ना सिर्फ निरर्थक है बल्कि दुर्भावना से भी प्रेरित है। इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि इस पूरे मसले पर इतनी अधिक गलत बयानी की गई है और सोशल मीडिया पर इतना गलत व गैरजिम्मेदाराना दुष्प्रचार अभियान चलाया गया है कि आम लोग भी यह समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या सही है और क्या गलत। तभी तो कोई इसके समर्थन में खड़ा है और कोई इसके विरोध में। राजनीतिक दलों को भी इस पर अपने स्वार्थ की रोटियां सेंकने का बहाना मिल गया है और विधानसभा के चुनाव में सिर्फ विपक्षी ही सरकार पर निशाना नहीं साध रहे बल्कि शिवसेना ने भी भाजपा पर सीट बंटवारे का विवाद सुलझाने के लिये दबाव बनाने के मकसद से इस मसले को हवा देना शुरू कर दिया है। लेकिन इस पूरे मामले का सच यह है कि जिन पेड़ों को काटने का आदेश जारी हुआ है उसका आरे के जंगल से कोई संबंध ही नहीं है। वह इलाका बेशक आरे से सटा हुआ है लेकिन वह ना तो जंगल का हिस्सा है और ना ही जंगल के इकोसिस्टम का हिस्सा है। बल्कि वह जमीन राज्य सरकार की है जिसका इस्तेमाल नहीं होने के कारण वहां स्वतः पेड़ व झाड़ उग आये हैं। तभी तो ग्रीन ट्राइब्युनल से लेकर निचली अदालत और हाई कोर्ट ने ही नहीं बल्कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी उस जमीन का मेट्रो प्रोजेक्ट के लिये इस्तेमाल करने के खिलाफ दायर याचिकाओं के विरोध में ही अपना फैसला दिया है। साथ ही अदालत के निर्देश पर सरकार उन 2700 पेड़ों के कटान की भरपाई के लिये पहले ही 35 हजार पेड़ लगा चुकी है। लेकिन मसला पेड़ों का होता तो बात और थी। बात तो यह है कि किसी भी तरह उस सरकारी जमीन का इस्तेमाल ना हो और शेड बनाने के लिये निजी जमीन का अधिग्रहण किया जाये जिसमें 50 हजार करोड़ से अधिक का खर्च आएगा और पूरी रकम मुट्ठी भर लोगों के खाते में चली जाएगी। इससे मेट्रो की लागत भी बढ़ेगी और जनता का पैसा बर्बाद भी होगा। जबकि सरकारी जमीन के इस्तेमाल के लिये एक रूपया भी अलग से खर्च नहीं होना है। रहा सवाल पेड़ों के कटने से पर्यावरण के नुकसान का तो बकौल मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस, मेट्रो का परिचालन आरंभ होने से उन एक करोड़ लोगों को रोजाना लाभ मिलेगा जो अभी तक केवल साठ लाख लोगों को ढ़ोने में सक्षम लोकल ट्रेनों पर निर्भर हैं। साथ ही इससे ढ़ाई लाख टन कार्बन फुटप्रिंट में भी कमी आएगी जिसके लिये अगर पेड़ लगाना पड़े तो एक करोड़ पेड़ लगाने होंगे। यानि हर तरह से यह योजना मुफीद भी है और अनुकूल भी। लेकिन जिस तरह से उसका बेवजह विरोध करके और मामले को राजनीतिक और सामाजिक रंग देकर सरकार को पीछे हटने के लिये मजबूर करने का प्रयास हो रहा है वह निश्चित ही एनजीओ और सामाजिक आंदोलनों की मंशा पर सवालिया निशान लगाने वाला है। कल जब आम लोगों को पूरे मामले की हकीकत पता चलेगी तब सेव आरे कैंपेन चलाने वालों की विश्वसनीयता किस स्तर पर होगी इसका सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है। यह उदाहरण तो एक बानगी भर ही है वर्ना तमाम ऐसे विकास के कार्य हैं जिसमें अड़ंगा लगाने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी गई। चाहे सरदार सरोवर बांध बनाने का मामला हो या कोई भी बांध या नदी जोड़ो परियोजना को साकार करने का या फिर कोई और मसला। जहां भी जल, जंगल या जमीन का विकास के लिये इस्तेमाल करने की कोशिश होती है वहां बखेड़ा करने की परंपरा सी बन गई है जिसके कारण प्रोजेक्ट में देरी होती है और उसकी लागत भी बढ़ती है। बेहतर होगा सामाजिक संगठन इस पर विचार करें और अपनी विश्वसनीयता की रक्षा के लिये खुद ही आगे आएं।