मुआवज़ा





                                    ( कहानी )

(डॉ. रंजना वर्मा)

कुसुमपुर में साँझ उतर आई थी । कृषक खेतों से लौट चुके थे । घर परिवार के लोग दैनिक कृत्यों के संपादन में लगे थे । अधिकांश व्यक्ति अपने घरों को लौट चुके थे । चूल्हे सुलग उठे थे । छप्परों से धुआं निकल कर चक्कर काटता हुआ अनंत की ओर उड़ने लगा था । 

                अचानक वृद्ध रमिया के पेट में तेज मरोड़ उठा । उसने त्रस्त होकर देखा । उसका इकलौता पुत्र लगन पशुओं की सेवा में लगा था । बहू चूल्हा जला कर आटा गूथ रही थी और छह महीने का नन्हा पौत्र खटोले पर पड़ा हाथ पैर फेंक रहा था ।

                रमिया ने वहीं से आवाज दी -

"बहू ! बच्चे को देखना । मैं मैदान जा रही हूं ।" और वह लौटा लेकर खेत की ओर चली गई ।

                धुंधलका गहराने लगा । रमिया देर से खेत में गई थी । पेट में रह रह कर उठने वाली मरोड़ उसे उठने नहीं दे रही थी । अचानक ही चारों ओर फैले अंधकार को देखकर उसे महसूस हुआ कि उसे घर से निकले बहुत देर हो चुकी है । आसमान की शेष किरणें भी रात्रि की काली चादर में मुंह छिपा चुकी थी । 

                कृष्ण पक्ष की वह रात बेहद काली थी । आकाश में छिटके हुए छिटपुट तारे वातावरण को विचित्र सी एकांतता से परिपूर्ण कर रहे थे । तभी गांव की दिशा से उठती थी चीखों के स्वर ने उसे चकित कर दिया । क्या हो रहा है इस समय वहां ? यह चीख-पुकार कैसी है ?

               नहीं ... कुछ भी नहीं है । बुढ़ापे के कारण शायद कान बज रहे हैं । या फिर नाले पार वाले बाग में वे भूत चीख रहे होंगे । रमिया ने पलट कर पीछे देखा । नाले के पार वाली बड़े बाबू की बगिया के घने वृक्षों के काले साए हवा की ताल पर थिरकते हुए हिल हिल कर उसे डराने लगे । अंधेरे में कितनी दूर आ गई वह ? लेकिन दूर भी कहाँ ?  वही बड़ी चक के पीछे ही तो है अपना गांव । और फिर उसके आगे तीन घर छोड़ कर ही तो है रमिया का घर ।

                  तभी फिर एक मर्मभेदिनी चीख उठी । और फिर जैसे चीखों का सिलसिला ही शुरू हो गया ।

       आवाजें और आवाजें ।

        शोर और शोर ।

                     रमिया ने कमर पर हाथ रख कर सीधी खड़ी होकर गांव की ओर देखते हुए ध्यान से सुनने का प्रयास किया । अब स्पष्ट हो चुका था कि यह चीख-पुकार का गांव की ओर से ही उठ रही थी बड़े बाबू की बगिया की ओर से नहीं । 

                 किसी भावी अनिष्ट की आशंका से वृद्धा रमिया का सर्वांग कांप उठा । वह बेतहाशा गांव की ओर दौड़ने लगी । कपड़े झाड़ झंकाड़ में फंस कर फट गए । दो बार तो वह गिरती गिरती बची । 

                  अभी वह चक आधा ही पार कर पाई थी कि लगा जैसे सब कुछ शांत हो गया । सारी चीख पुकार अचानक ही थम गई । शमशानी निस्तब्धता ने सारे गांव को निगल लिया । समय ठहर गया जैसे । सहमी सहमी सी रमिया कांपते कदमों से आगे बढ़ी । तभी एक गरजदार रोबीली आवाज ने उसके पैर बांध दिए ।

"आज तो हम जा रहे हैं लेकिन फिर लौट कर आएंगे । एक भी आदमी जिंदा नहीं बच पाएगा यह याद रखना ।"

                 किसकी आवाज है यह ? कैसी चुनौती ? कैसी धमकी ?

                किसी प्रकार लड़खड़ाती , अपने पांवों को घसीटती , सहमी सहमी वह अपने द्वार तक जा पहुंची । और तब ......  अचानक ही उसे जैसे किसी ने उसे खौलते हुए कड़ाहे में डाल दिया ।वज्राहत दृष्टि सामने का दृश्य देखकर फटी की फटी रह गई ।

                 पशुओं के निकट रक्त के तालाब में डूबी उसके पुत्र लगन की मृत देह पड़ी थी ।भीत दृष्टि भीतरी द्वार पर जा कर एक बार फिर हाहाकार कर उठी । द्वार के पास ही उसकी सलोनी बहू का क्षत-विक्षत शव पड़ा था । रमिया की सारी देह थरथराने लगी ।उसने घबराकर खटोले की ओर देखा जहां वह अपने दुधमुँहे पौत्र को खेलता छोड़ गई थी । परंतु कहाँ था वह नन्हा सुकुमार शिशु ? वहां तो एक मास का लोथड़ा पड़ा था जो चीख चीख कर अपने हत्यारों की निर्ममता की कहानी कह रहा था । रमिया की रही सही शक्ति भी चुक गई । उसका वृद्ध शरीर लहरा कर मूर्छित हो गया ।

                न जाने कितनी रात गए उसकी आंखें खुली तो उसने स्वयं को खेत में पड़ी पाया । पास ही खेत में पौधों के बीच छिपे बैठे थे चंद ग्राम वासी जिनकी आंखों में दहशत और आतंक की परछाइयां मचल रही थीं । रमिया ने कुछ कहना चाहा पर एक हाथ ने बढ़ कर उसका मुंह बंद कर दिया । साथ ही उभरी एक फुसफुसाहट -

"चुप-चुप । कहीं वे फिर न लौट आयें ।"

                हाय रे आत्मप्रेम ...... अपनी मृत्यु का ऐसा दारुण भय जो स्वजनों की मृत्यु के बाद भी जीवन की कामना जागृत करता रहे । क्या करेगी वह ऐसी जिंदगी  लेकर ? कौन सा सुख उसे जीवन जीने की प्रेरणा देगा ? किसका अपनत्व , किसकी सुख लालसा जीवन के आयामों की पथ - दर्शिका बनेगी ? रमिया की वाणी , उसका दारुण क्रंदन कंठ तक आकर लौट गया और छाती में घुटने लगा । सूखी हुई आंखों में भीषण हाहाकार तांडव करने लगा ।

               और यह सब क्या केवल रमिया के साथ ही था ? नहीं । वहां के सभी व्यक्तियों की वही स्थिति थी । पल पल करके रात बीत रही थी । एक-एक क्षण युगों के समान लंबा होता जा रहा था । घड़ी की सुइयां स्थिर हो गई थीं । जैसे पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमना भूल गई थी । हवा थम गई थी । आकाश कालिमा के आंसू बहा कर विलाप कर रहा था । तारे टूट टूट कर उन्हें सांत्वना दे रहे थे । पौधों की सरसराती सिहरन सहानुभूति प्रगट कर रही थी । उसी दुरवस्था में रात आंखों में ही कट गई । निर्दोष प्राणियों का रक्त आकाश पर फैलने लगा और फिर वह रक्त भी धुल पुछ गया ।

                  उसके बाद तो बहुत कुछ घटा कुसुमपुर में । पुलिस आई । लाशें उठाई गई । पोस्टमार्टम हुए और फिर उन सबों की अंत्येष्टि भी कर दी गई । घरों में बिखरा खून धो पोंछ कर साफ कर दिया गया पर न तो मन का वह भीषण दुःसह दुख धुल सका और न उस आतंक की अंत्येष्टि ही की जा सकी ।

               पत्रकारों ने कुसुमपुर को तीर्थ बना लिया तो छोटे बड़े नेता अपनी संवेदनाएं भुनाने जा पहुंचे । स्वयंसेवकों ने थोड़ी राहत , थोड़ी सांत्वना बिखेरी । कितने ही जाने अनजाने लोगों ने आंसुओं से भरे पैगाम और सहानुभूति पूर्ण शब्दों में संवेदना संदेश भेजे । कितना कुछ नहीं झेलना पड़ा कुसुमपुर के गांव वालों को ।

               कुछ सवर्णों के ईर्ष्या , द्वेष और आक्रोश का ऋण ब्याज सहित चुका दिया था उन हरिजनों ने । 

               'हरिजन' यह शब्द संज्ञा भी अब कितनी हास्यास्पद लगती है । 'हरि के जन' पशुओं से भी बदतर व्यवहार झेल कर भी जैसे उस नरक की आग से उबर नहीं पा रहे थे । असह्य दुख की वह दुर्वह बेला गुजार जाने वाले वे आहत हृदय भी दिखावों भरी संवेदनाओं के मुखौटों को सह नहीं पा रहे थे जैसे ।

                   नेताओं और राजनेताओं की सहानुभूति ने अब एक और मोड़ लिया । आत्मरक्षा के लिए गुहार लगाने वाले निरीह प्राणियों को सुरक्षा न दे पाने वाली , गुनहगारों को दंड भी न दिला पाने वाली सरकार ने उस भीषण हत्याकांड की विभीषिका को कम करने के उद्देश्य से प्रति व्यक्ति दो लाख रुपयों की दर से मुआवजा देने की घोषणा कर दी । ग्राम वासियों के दरकते दिलों में एक और दरार पड़ गई । दिखावे की संवेदनाओं के बोझ तले दब कर हाहाकार करते वे आहत जन  इस उपहास को सहने की सामर्थ भी खो बैठे ।

                रमिया के अंतर में खौलता लावा उस घोषणा को सुनकर और भी भड़क उठा । वह वृद्धा , अनाथा उस घोषणा को सुनकर मूक रह गई । धन बांटने आए नेताओं ने उनके चेहरों पर संतोष तथा राहत भरी भावनाओं की कल्पना कर रखी थी । पत्रकारों का दल उस धन वितरण के कार्यक्रम को सुर्खियां देकर प्रकाशित कराने के फेर में था । कैमरे के छिद्र कुछ स्मरणीय दृश्यों को कैद करके लेने के लिए आतुर हो रहे थे । उन ग्राम वासियों के उतरे हुए उदास और मृतप्राय चेहरों ने जैसे उनकी आशाओं पर तुषारापात कर दिया ।

                अपने पूरे परिवार की आहुति देकर भी चीत्कार न कर पाने वाली काठ हो गई रमिया के ह्रदय में उभरता हाहाकार विस्फोट बनकर फूट पड़ा । धन देने वाले की ओर आंसू भरी दृष्टि से देखते हुए कातरता से कराह उठी वह -

" मेरे बच्चे के प्राणों का मूल्य सिर्फ दो लाख रुपये ही है ?...... अरे हमारे बच्चे तो अनमोल थे साहब ! .... हमारे बच्चे हमारी आंखों के तारे थे .....  हमारे बुढ़ापे की लाठी थे .....  हमारा सहारा थे साहब ! ये दो लाख रुपये लेकर हम क्या करेंगे ?  हो सके तो हमारे बच्चों को हमें वापस लौटा दो साहब ! हमें और कुछ नहीं चाहिए .. हम .... "

                 उस समय पत्रकारों की आंखों के सामने एक तराजू की आकृति कौंध रही थी जिसके एक पलड़े पर दो लाख रुपये और दूसरे पर निरीह इंसानों के रक्त रंजित शव रखे थे । उन शवों का पलड़ा मुआवजे की राशि से बहुत भारी था ।