संगठन में संतुलन की जरूरत






लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त का सामना करने के बाद कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर मचे भारी घमासान को शांत करने के लिये राहुल गांधी का इस्तीफा मंजूर करते हुए सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाने का जो फार्मूला अमल में लाया गया उससे संगठन की सिरदर्दी कम होने के बजाय अब और अधिक बढ़ती हुई दिख रही है। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेसनीत संप्रग की शिकस्त के बाद राहुल के नेतृत्व में संगठन में परिवर्तन की जो शुरूआत की गई थी उस प्रयोग की विफलता ने भले ही पार्टी को पुराने ढ़र्रे और पुराने चेहरों की ओर लौटने के लिये मजबूर कर दिया हो लेकिन उस प्रयोग से निखर कर निकले उन चेहरों को गेहूं के साथ घुन की तरह पीसने की कोशिशें पार्टी के लिये हर तरह से नुकसानदायक ही साबित होनेवाली हैं। बेशक पार्टी को नये चेहरों और नये तेवर-कलेवर के साथ पुनस्र्थापित करने की राहुल की कोशिशें पूरी तरह अपना रंग नहीं दिखा पाईं लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पुराने थके-पके चेहरों को पीछे करके युवा नेतृत्व को आगे बढ़ाने के नतीजे में पार्टी के भीतर एक नयी पौध अपनी जड़े जमाने लगी थीं जिसके कांधे पर भविष्य की जिम्मेवारी का बोझ डाला जा सकता था। लेकिन उस नयी पौध को हाशिये पर डालकर पुरानी पीढ़ी को ही दोबारा हर स्तर से आगे बढ़ाने का सीधा नुकसान तो यही दिखाई पड़ रहा है कि तात्कालिक तौर पर कुछ लाभ दिलाने के बाद भविष्य के लिये नेतृत्व के निर्माण की पूरी प्रक्रिया को इन्होंने अपने निजी स्वार्थ के लिये बाधित कर दिया है। वह भी तब जबकि इन थके हुए कांधों का बेहद सीमित समय के लिये ही इस्तेमाल किया जा सकता है और इनसे भविष्य के लिये कोई उम्मीद नहीं पाली जा सकती है। भविष्य की सुरक्षा के लिये तो नयी पौध ही लगानी होगी। वह भी बगीचे के बंजर होने होने से पूर्व ही। लेकिन बुजुर्ग दरख्तों की छांव में नयी पौध के पनपने से पहले ही उसकी जड़े उखड़ने की जो प्रक्रिया आरंभ हो गई है वह निकट भविष्य में बगीचे को बंजर बनाकर ना रख दे। कल तक भाजपा की तर्ज पर कांग्रेस में भी बुजुर्ग नेताओं को मार्गदर्शक बनाकर युवाओं को आगे बढ़ाने की कोशिशें चल रही थीं। इसी प्रयास में महाराष्ट्र में मिलिंद देवड़ा और संजय निरूपम को, मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया को, राजस्थान में सचिन पायलट को, हरियाणा में अशोक तंवर और रणदीप सुरजेवाला को, पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू और यूपी में जितिन प्रसाद को आगे बढ़ाया जा रहा था जबकि इन सूबों में पुरानी पीढ़ी के नेताओं को धीरे-धीरे सांगठनिक जिम्मेदारियों से मुक्ति दी जा रही थी। राहुल की कोशिश थी कि युवाओं को आगे लाकर कांग्रेस को नये चेहरे और नये तेवर-कलेवर के साथ सामने लाया जाये। इसके लिये उन्होंने सांगठनिक चुनावों की भी शुरूआत कराई और चुनाव के माध्यम से संगठन को मजबूती देने और नए नेतृत्व को उभरने का मौका देने की राह अपनाई। इसी के तहत लोकसभा चुनाव से पूर्व हुए कांग्रेस के दिल्ली महाधिवेशन के मंच को पूरी तरह खाली रखा गया था और अपने संबोधन में राहुल ने औपचारिक तौर पर यह बताया था कि कांग्रेस ने अपने महाधिवेशन के मंच को इसलिये खाली रखा है ताकि नये लोग यहां आ सकें। यानी यह प्रक्रिया किसी भी तरह से दिखावे के तौर पर नहीं अपनाई जा रही थी बल्कि पूरी गंभीरता के साथ नयी पौध को उभारने का ठोस प्रयास किया जा रहा था। लेकिन लोकसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद नये चेहरों को तरजीह देने और बुजुर्ग नेताओं को हाशिये पर भेजने की रणनीति का मनोनुकूल परिणाम सामने नहीं आने के बाद राहुल ने भी अपने पद से इस्तीफा दे दिया और पार्टी के तमाम पदाधिकारियों से आग्रह किया कि वे अपने पद से इस्तीफा दे दें। उसके बाद के घटनाक्रम में कांग्रेस की कमान एक बार फिर सोनिया गांधी के हाथों में चली गयी और उनके आगे आते ही अंतिम दौर की सियासी पारी खेल रहे बुजुर्ग नेताओं ने दोबारा संगठन पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली। अब आलम यह है कि मुम्बई की राजनीति में जिस संजय निरूपम ने अपनी मजबूत पकड़ बनानी शुरू कर दी थी उन्हें इस कदर हाशिये पर धकेल दिया गया है कि उनकी पसंद के एक भी उम्मीदवार को टिकट देना गवारा नहीं किया गया। इसी प्रकार हरियाणा में अशोक तंवर को ना सिर्फ कान पकड़ कर प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी से उतार दिया गया बल्कि उन्हें विधानसभा का टिकट देने लायक भी नहीं समझा गया। सुरजेवाला को टिकट तो दिया गया लेकिन उनकी हैसियत अब पार्टी में लगातार कमजोर होती हुई स्पष्ट दिख रही है। ऐसा ही प्रपंच रचकर मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया को हाशिये पर धकेल दिया गया है और उन्हें आगे आने का मौका देने से वंचित करने के क्रम में प्रदेश अध्यक्ष के पद पर मुख्यमंत्री कमलनाथ को ही विराजमान रखा जा रहा है। राजस्थान में पायलट हतोत्साहित हैं और पंजाब के सियासी परिदृष्य से सिद्धू नेपथ्य में चले गये हैं। यानी समग्रता में समझने की कोशिश करें तो निरूपम ने राहुल के चहेतों को किनारे लगाने की जिस साजिश का उल्लेख करते हुए चुनाव प्रचार से खुद को अलग कर लिया है उसे कांग्रेस द्वारा अनुशासनहीनता बताया जाना दरअसल कुनबे में जारी सैद्धांतिक उठापटक पर पर्देदारी का ही प्रयास है। सच तो यह है कि हर सूबे में युवा व उभरते हुए नेताओं के पंख काटे जा रहे हैं और इसी का नतीजा है कि यूपी में अदिति सिंह का विद्रोह खुल कर सामने आ रहा है और महाराष्ट्र में निरूपम का। मध्य प्रदेश में सिंधिया की तिमलिलाहट और बौखलाहट भी किसी से छिपी नहीं है। इन सभी युवाओं को अपना भविष्य अंधकारमय दिख रहा है और उन्हें अपनी राजनीतिक यात्रा को जारी रखने के लिये नये रास्तों की तलाश के लिये मजबूर होना पड़ रहा है। ऐसे में अब गेंद कांग्रेस अध्यक्षा के पाले में है और संगठन में संतुलन की राह उनको ही तलाशनी होगी ताकि वर्तमान की चुनौतियों से निपटते हुए भविष्य के लिये मजबूत कांधे भी समय रहते तैयार कर लिये जाएं।