मन के हारे हार, मन के जीते जीत






किसी लड़ाई में विरोधी के हाथों हार जाना और हार को स्वीकार कर लेने में बहुत अंतर है। हार को जीत में तब्दील किया जा सकता है बशर्ते हार को दिल से स्वीकार ना किया गया हो। कोई भी जंग अंतिम तभी मानी जा सकती है जब या तो किसी एक पक्ष का अस्तित्व ही समाप्त हो जाए अथवा वह अपनी हार को स्वीकार करके भविष्य में जीतने के लिये प्रयास करने से हाथ खड़ा कर दे। इस लिहाज से देखा जाये तो महाराष्ट्र की रोजाना नए रंग दिखाती नाटकीय राजनीति में बेशक भाजपा के हाथों से सत्ता की बागडोर फिसल गई हो लेकिन कूटनीतिक तौर पर करारी मात खाने के बावजूद भाजपा को अगर सांगठनिक, सैद्धांतिक या व्यावहारिक तौर पर अपने चाल, चरित्र व चेहरे में कोई कमी या खामी दिखाई नहीं पड़ रही है तो इसे पार्टी के लिये शुभ संकेत ही कहा जाएगा। यह संकेत है जूझने के उस जज्बे का जिसमें हार को स्वीकार करके चुपचाप हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाने का कोई सवाल ही नहीं है। अगर पार्टी ने मौजूदा शिकस्त को स्वीकार करने से इनकार कर दिया है तो इसका साफ मतलब है कि उसकी यह हार तात्कालिक ही है। हालांकि इसे हार कहना भी पूरी तरह सही नहीं होगा क्योंकि सच पूछा जाये तो भाजपा की हार हुई ही नहीं है। अगर पार्टी ने शिवसेना के साथ गठबंधन करके कांग्रेस और एनसीपी गठजोड़ के खिलाफ चुनाव लड़ा जिसमें ना सिर्फ 105 सीटों पर जीत दर्ज कराते हुए भाजपा सबसे बड़े दल के तौर पर उभरी और उसके गठजोड़ को 288 में से 161 सीटें हासिल हुई तो इसे हार कैसे कहा जा सकता है। यह तो सीधे तौर पर भाजपा और शिवसेना को सरकार बनाने के लिये हासिल हुए जनादेश के तौर पर ही देखा जायेगा। लेकिन अब चुंकि 56 सीटों पर जीत दर्ज करानेवाली शिवसेना ने भाजपा से किनारा करके सीटों के लिहाज से तीसरे और चैथे पायदान पर खड़ी एनसीपी और कांग्रेस से तालमेल बिठाकर सत्ता पर कब्जा करने में कामयाब हो रही है तो इसे भाजपा की हार के नजरिये से देखना कैसे सही हो सकता है। सच पूछा जाये तो ना यह भाजपा की हार है और ना ही देवेन्द्र फडनवीस की पराजय है। आखिर जनादेश तो फडणवीस को मुख्यमंत्री बनाने के पक्ष में ही आया था। यही वजह है कि भाजपा की ओर से प्रदेश संगठन में किसी भी तरह का बदलाव करने का कोई संकेत नहीं दिया जा रहा है और पार्टी ने स्पष्ट तौर पर यह जता दिया है कि मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर पेश किये गये देवेन्द्र फडणवीस के चेहरे को वह हर्गिज पीछे नहीं करेगी। हालांकि देवेन्द्र को राष्ट्रीय राजनीति में नई भूमिका दिये जाने की अटकलें भी लगाई जा रही थीं लेकिन इस तरह की संभावनाओं को सिरे से खारिज करते हुए भाजपा ने साफ कर दिया है कि गठबंधन की सरकार को दोबारा सत्ता में वापसी कराने का जनादेश हासिल करने में कामयाब रहने के बावजूद सरकार बनाने में नाकाम रहे फडणवीस को प्रदेश की राजनीति से अलग करके केन्द्र में सक्रिय करने का कोई औचित्य ही नहीं है। भले ही एनसीपी और कांग्रेस के समर्थन से महाराष्ट्र की सत्ता पर कब्जा जमाने में शिवसेना को कामयाबी मिल गई हो लेकिन भाजपा का शीर्ष नेतृत्व सूबे की सियासत में अपनी हार को स्वीकार करने के लिये भी तैयार नहीं दिख रहा है। अलबत्ता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने एक निजी टीवी चैनल के मंच पर अपनी बात रखते हुए साफ शब्दों में कहा कि इस बार के चुनाव का जनादेश भाजपा की अगुवाई वाली सरकार के पक्ष में ही आया है और मतदाताओं ने भाजपा और शिवसेना को सरकार बनाने के लिये आवश्यक पूर्ण बहुमत देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहां तक कि शाह ने मुख्यमंत्री के तौर पर फडणवीस की जनस्वीकार्यता का हवाला देते हुए कहा कि पूरे चुनाव के दौरान फडणवीस के चेहरे को आगे रखकर ही चुनाव प्रचार अभियान चलाया गया जिसे प्रदेश के मतदाताओं का भरपूर समर्थन मिला और भाजपा को अपने कोटे की सत्तर फीसदी से अधिक सीटों पर जीत हासिल हुई। शाह की ही तर्ज पर भाजपा के अन्य शीर्ष रणनीतिकारों की बातों से भी साफ है कि प्रदेश में चुनाव परिणाम सामने आने के बाद शिवसेना के हाथों सियासी पटखनी खाने के बावजूद भाजपा पर लोगों का विश्वास बदस्तूर कायम है लिहाजा प्रदेश के नेतृत्व में किसी भी तरह के परिवर्तन की कोई आवश्यकता ही नहीं है। फिलहाल भाजपा ने सूबे की सियासत में तेल देखो और तेल की धार देखो की नीति पर अमल करने का फैसला किया है जिसके तहत शिवसेना के नेतृत्व में गठित हो रही नई सरकार की राहों में कांटे बिछाने की आक्रामक कोशिश नहीं की जाएगी। लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि भाजपा ने सरकार बनाने की अपनी उम्मीदों और संभावनाओं को अगले चुनाव तक के लिये दफन कर दिया है। बल्कि हार को स्वीकार करने से इनकार करके इसने साफ तौर पर जता दिया है कि शिवसेना ने गठबंधन धर्म का निर्वाह करने से परहेज बरतते हुए मुख्यमंत्री पद पर कब्जा जमाने के लिये जो बेमेल गठजोड़ किया है उसके एकजुटता की कड़ी परीक्षा लगातार ली जाती रहेगी। बेशक भाजपा ने इस बार के महाराष्ट्र चुनाव में एक के बाद कई गलतियां की हैं लेकिन इसकी कोई भी गलती ऐसी नहीं रही है जिससे इसे नीतियों, सिद्धांतों या परंपराओं की कसौटी पर गलत ठहराया जा सके। अलबत्ता इसकी तमाम गलतियां व्यावहारिक और कूटनीतिक रही हैं जिसमें इसने पहले तो अपने दम पर पूर्ण बहुमत का जनादेश हासिल करने की कोशिश ही नहीं की और बाद में शिवसेना पर भी भरोसा कर लिया और अजीत पवार पर भी। खैर, अब वक्त है गलतियों से सबक लेने का और आगे गलतियां नहीं करने का। इस लिहाज से देखें तो हार को स्वीकार नहीं करने का कदम वास्तव में गलतियों को सुधारने के लिहाज से ही उठाया गया है जो प्रदेश की राजनीति को जीवंतता भी देगी और भाजपा की उम्मीदों को मजबूती भी देती रहेगी।