बुनियाद से जुड़े बुनियादी मसले






(राकेश रमण)

सत्ता का समीकरण साधने के लिये सियासी बुनियाद से हटने पर किस तरह की बुनियादी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है इसकी ताजा मिसाल शिवसेना और जदयू के अंदरूनी हालात काफी खुल कर बयान कर रहे हैं। शिवसेना हो या जदयू, इन दोनों ने सत्ता के लिये बुनियादी सिद्धांतों से समझौता तो किया ही है। एक ओर हिन्दुत्व व राष्ट्रवाद की वैचारिक व सैद्धांतिक बुनियाद पर खड़ी रही शिवसेना ने उस धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की डगर पर कदम बढ़ाया है जिस पर मुस्लिम तुष्टिकरण और हिन्दुत्व के विरोध का आरोप अक्सर लगता रहता है जबकि जदयू ने धर्मनिरपेक्षता और कट्टर हिन्दुत्व विरोधी राजनीति की अपनी बुनियाद को छोड़कर सत्ता के लिये समझौते की राह पर आगे बढ़ने में ही अपनी भलाई समझी है। वर्ना बीते दिनों को याद करें तो भाजपा को कट्टर हिन्दुत्व राष्ट्रवादी सोच को लेकर जितना उलाहना शिवसेना से मिलता था उतना किसी अन्य दल या संगठन से नहीं जबकि जदयू ने तो भाजपा पर धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांतों की ऐसी नकेल कसी हुई थी कि अटल सरकार के छह साल के कार्यकाल में सत्ता के लिये सिद्धांतों को हाशिये पर डालने के अलावा भाजपा के पास दूसरा कोई विकल्प ही नहीं बचा था। लेकिन आज की तारीख में स्थिति बिल्कुल उलट है। जहां एक ओर लोकसभा में नागरिकता संशोधन विधेयक का सशर्त समर्थन करनेवाली शिवसेना अब राज्यसभा में अपना रूख बदलने पर विचार कर रही है वहीं दूसरी ओर कांग्रेसवादी धर्मनिरपेक्षता की राजनीति करनेवाली जदयू ने ना सिर्फ धारा 370 पर भाजपा का संसद में साथ दिया है बल्कि गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को भारत की नागरिकता देने के लिये लाये गये नागरिकता संशोधन अधिनियम यानी कैब और मुस्लिम घुसपैठियों की पहचान करके उन्हें देश से बाहर खदेड़ने के लिये तैयार किये जाने वाले राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी के मसले पर भी वह सरकार को अपना पूरा सहयोग मुहैया करा रही है। हालांकि भाजपा तो अपने बुनियादी सिद्धांतों को अमली जामा पहनाने के क्रम में ही इन मसलों को एक के बाद एक अनवरत निपटाने में जुटी हुई है लेकिन ऐसे मसलों पर अपने स्थापित बुनियादी सिद्धांतों से इन दिनों शिवसेना भी समझौता कर रही है और जदयू भी। नतीजन सांगठनिक स्तर पर भीषण सैद्धांतिक व वैचारिक मतभेदों व टकरावों का सामना शिवसेना को भी करना पड़ रहा है और जदयू को भी। शिवसेना में अरविंद सावंत की अगुवाई में मोर्चा खुल गया है तो जदयू में प्रशांत किशोर और पवन वर्मा सरीखे नेताओं ने बगावत कर दी है। लेकिन इस सबसे इतर भाजपा को बेहतर पता है कि देश की जनता ने उस पर भरोसा क्यों किया है और बहुमत के लिये आवश्यक सीटों के मुकाबले काफी अधिक सीटें उसकी झोली में क्यों डाली हैं। निश्चित तौर पर सिर्फ देश में विकास और सुधार के लिये ही सरकार चुननी होती तो मतदाताओं के समक्ष तमाम विकल्प मौजूद थे। फिर भाजपा में कौन से सुर्खाब के पंख लगे हुए हैं? अगर भाजपा से सिर्फ इतनी ही उम्मीदें होतीं तो रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा, संचार, मनोरंजन और परिवहन के क्षेत्र में तो भाजपा की अटल सरकार ने जितना क्रांतिकारी काम किया उतना ना तो उससे पहले की कोई सरकार कर पाई और ना ही उसके बाद की। इसके बावजूद अगर मतदाताओं ने भाजपा को खारिज करके ना सिर्फ कांग्रेस को पुनर्जीवित कर दिया बल्कि लगातार दो बार उसके हाथों में ही सत्ता के संचालन की कमान भी सौंपी। भाजपा को उस एक दशक के दौरान केवल इस वजह से ही सियासी तौर पर नेपथ्य में जाने के लिये विवश होना पड़ा क्योंकि उसने सत्ता के लिये अपने बुनियादी सिद्धांतों को हाशिये पर डालने की गलती कर दी थी। लेकिन अब जबकि जनता ने भाजपा को एक बार फिर मौका दिया है उसके बाद भी अगर वह वैचारिक व सैद्धांतिक मसलों पर दृढ़ता से आगे नहीं बढ़ेगी तो निश्चित तौर पर इसे दूरगामी तौर पर उसकी बहुत भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। इसी हकीकत को समझते हुए मोदी सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में भी बुनियादी सैद्धांतिक व वैचारिक मसलों को आगे बढ़ाने में कोई कोताही नहीं बरती और दूसरे कार्यकाल में भी इस राह पर आगे बढ़ने से संकोच नहीं किया है। गहराई से परखें तो भाजपा ने दो चरणों में अपने बुनियादी सिद्धांतों को अमली जामा पहनाने की पहल की है। पहला चरण था मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान जिसमें जनसंघ के दिनों से ही दिये जाते रहे उस नारे को सार्थक किया गया जिसके तहत कहा जाता था कि,- 'सब सुधरेंगे तीन सुधारे, नेता कर कानून हमारे।' पहले कार्यकाल में इस नारे में छिपे स्वप्न को काफी हद तक साकार किया गया। नेताओं को सुधारने के लिये उनकी लालबत्ती छीनी गई, वीआईपी कल्चर का दिखावा कम किया गया, निर्धारित कामकाज के प्रति जवाबदेह बनाया गया और भष्टाचार पर नकेल के लिये कड़ी निगरानी सुनिश्चित की गई। इसके अलावा कर यानी टैक्स सुधार के लिये 'एक देश एक कर' प्रणाली के तौर पर जीएसटी लागू किया गया और कानूनों को सुधारने के लिये अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे सैकड़ों कानूनों को समाप्त करने के अलावा कई अलग-अलग कानूनों को एकीकृत किया गया। कोशिश तो न्यायिक सुधार की भी हुई और इसके लिये संविधान संशोधन भी किया गया लेकिन सर्वोच्च न्यायालय के माननीयों ने अपना अधिकार बचाने के लिये उसे लागू ही नहीं होने दिया। इसके बावजूद पहले कार्यकाल में मोदी सरकार ने जनसंघ के दिनों के नारे को काफी हद तक साकार कर दिया और इसी का नतीजा रहा कि बीते चुनाव में भाजपा को पहले से भी अधिक बहुमत के साथ सरकार बनाने का जनादेश मिला। अब दूसरे कार्यकाल में अपने बुनियादी सिद्धांतों को लागू करने के दूसरे चरण के तहत मोदी सरकार ने शुरूआती दिनों में ही तीन तलाक के खिलाफ कानून भी बना दिया और जम्मू कश्मीर को अनुच्छेद 370 से मुक्त भी करा दिया। राम मंदिर का मसला न्यायिक लड़ाई लड़कर सुलझा लिया गया और अवैध घुसपैठियों की पहचान करके उन्हें खदेड़ने और हिन्दुत्व की अवधारणा को आगे बढ़ाने के लिये गैर-मुस्लिम शरणार्थियों को देश की नागरिकता प्रदान करने के लिये कानून में संशोधन की राह भी पकड़ी गई। बुनियादी सिद्धांतों पर इसी अडिगता का प्रतिफल उसे दूरगामी तौर पर लंबे समय तक मिलना तय ही है जबकि जदयू और शिवसेना सरीखे दलों ने अपने स्थापित सिद्धांतों को हाशिये पर डालने की जो पहल की है उसका दूरगामी तौर पर उन्हें भारी खामियाजा भुगतना पड़े तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी।