कानून नाकाफी, सामाजिक संरचना एवं मानसिकता में बदलाव की है जरूरत

(पंकज यादव)


हैदराबाद में हुई डा. प्रियंका रेड्डी रेप व हत्याकांड से पूरा देश एक बार फिर सकते में है और इस घटना ने आम जनमानस को एक बार फिर से देश भर में बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं के विषय में सोचने को मजबूर कर दिया है। बलात्कार की ऐसी तमाम घटनाओं से विचलित होने से पहले एक बार ठहरिये और थोड़ा विचार कीजिये........हम उस देश में रहते हैं, जहां एक ओर देश की बहुसंख्यक आबादी नवरात्र के नाम पर वर्ष में 18 दिन देवी पूजा और अनुष्ठान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेती है, दुर्गा जागरण और दुर्गा विसर्जन के नाम पर नारी शक्ति के प्रति आसक्त हो, लाखों की संख्या में ऐसे आयोजनों में जुटती है, विभिन्न तीर्थस्थल सिर्फ नारीशक्ति का रूप मानी जाने वाली देवियों के नाम पर स्थापित हैं, जहां शिक्षा, सम्पन्नता, धन, नदियों और मातृभूमि तक का रूपान्तरण सरस्वती, लक्ष्मी, गंगा और भारतमाता के रूप में किया गया है, जोरों-शोरों से मनाये जाने वाले दशहरा पर्व पर सीताहरण का दोष मढ़ रावण के नाम पर लोग हर वर्ष लाखों पुतले जलाते हैं। अल्पसंख्यकों की बात की जाये तो सामान्य तौर पर समाज में धारणा यह है कि इस्लाम मंे महिलाओं को हाशिये पर रखा गया है, लेकिन इस्लामिक मान्यताओं के अनुसार मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने फरमाया है कि जिस किसी के पास तीन बेटियां अथवा तीन बहनें हों, उनके साथ अच्छा व्यवहार किया तो वह जन्नत पायेगा, इसी तरह मान्यता यह भी है कि जिसने भी बेटियों के प्रति किसी भी प्रकार का कष्ट उठाया और वह उनके साथ अच्छा व्यवहार करता रहा तो बेटियां उसके लिये जहन्नुम से पर्दा बन जायेंगीं। पूरे देश में ही महिलाओं और लड़कियों को परिवार के सम्मान से जोड़कर देखा जाता है, राष्ट्रीय स्तर पर हम 'बेटी बचाओ-बेटी बढ़ाओ' जैसे  अभियान भी चलाते हैं। लेकिन दूसरी ओर थाॅमसन र्यूटर फाउण्डेशन द्वारा जारी वल्र्ड इन्डैक्स 2018 में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देशों की सूची में हम प्रथम स्थान पर हैं, हमारे देश के ही नेशनल क्राइम रिकाॅर्ड ब्यूरो के आंकड़ों को ही सच माना जाये 2010 के बाद से महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 7.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसी ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2017 में देश में 32,559 महिलाओं के साथ बलात्कार की घटना दर्ज की गईं, इन्हीं आंकड़ों के अनुसार देश में हर 6 घण्टे में एक महिला बलात्कार का शिकार हो जाती है। मीडिया रिपोर्ट्स की मानें तो देशभर में रेप के केवल 32 प्रतिशत मामलों में ही आरोपियों को सजा मिल पाती है। पिछले कुछ वर्षों की बात की जाये तो वर्ष 2012 के निर्भया काण्ड और गत वर्ष के कठुआ काण्ड ने पूरे देश के आम जनमानस को विचलित करके रख दिया था। 16 दिसम्बर 2012 को हुए निर्भया काण्ड के बाद 03 फरवरी 2013 को क्रिमिनल लाॅ अमेंडमेंट आॅर्डिनेन्स आया, जिसके द्वारा महिलाओं के खिलाफ अपराधों से जुड़े कानूनों में व्यापक स्तर पर बदलाव किये गये। इस दौरान गठित जस्टिस वर्मा कमेटी के अनुसार महिलाओं की सुरक्षा का उत्तरदायित्व सरकार और समाज का है। लेकिन इस सबके बाबजूद न तो रेप के मामलों में कोई उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई, न ही महिला उत्पीड़न से सम्बन्धित मामलों में। बल्कि इस दौरान ऐसे भी तमाम मामले संज्ञान में आते रहे हैं, जिनमें विभिन्न जानी-मानी हस्तियां, राजनेता और यहां तक कि विभिन्न धर्मों के धर्मगुरुओं तक की संलिप्तता पाई गई। गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश के उन्नाव से विधायक कुलदीप सेंगर और पूर्व राज्यमंत्री चिन्मयानन्द बलात्कार के आरोपों में कारागार में निरुद्ध हैं। सामान्य तौर पर बात की जाये तो ऐसे मामलों में लचर पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था को दोषी ठहराया जाना गलत नहीं होगा। शासन-प्रशासन की बात की उदासीनता की बात की जाये तो हैदराबाद के सामूहिक रेप व हत्याकांड के बाद लोकसभा में महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने निर्भया फण्ड के खर्च का चैंकाने वाला ब्यौरा दिया, जिसके अनुसार देश के विभिन्न राज्यों ने या तो इस फण्ड में केन्द्र सरकार द्वारा जारी धन को खर्च ही नहीं किया है या फिर न के बराबर ही खर्च किया है, अकेले उत्तर प्रदेश की ही बात की जाये तो इस फण्ड में प्राप्त 119 करोड़ रुपये में से उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा मात्र छह करोड़ रुपये खर्च किये गये हैं। जबकि महिलाओं के लिये निःशुल्क बस सेवा उपलब्ध कराने वाली दिल्ली सरकार द्वारा इस मद में मिले 50 लाख रुपयों में से एक भी पैसा खर्च ही नहीं किया गया है। देशभर के 36 राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों में से मात्र 20 ने ही महिला हैल्पलाइन बनाने में पैसे खर्च किये हैं।  ये सब आंकड़े दर्शाते हैं कि सरकारें महिलाओं और बेटियों की सुरक्षा को लेकर किस प्रकार उदासीन हैं। हालांकि ऐसा नहीं है कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों और रेप के मामलों में दुनिया के अन्य सभी देशों की स्थिति हमसे बहुत अच्छी ही हो, लेकिन विभिन्न विधिक प्रावधान और उपयुक्त नीतियों के अलावा देश में महिला सम्मान से जुड़ी अनेकों धार्मिक आस्थाओं व पारम्परिक मान्यताओं के बाबजूद भी महिला उत्पीड़न व रेप के मामलों से जुड़े आंकड़े एक बड़ा सवाल खड़ा करते हैं। दरअसल कानून का काम तब शुरु होता है, जब घटना घटित हो चुकी होती है। ऐसी स्थिति में पीड़िता के हक में जाने के बाद भी कोई भी निर्णय नाकाफी ही साबित होता है। असल में इस तरह के मामलों के पीछे असल वजह सामाजिक संरचना में स्थापित पुरुषवादी मानसिकता ही है। यथार्थ यही है कि हमारे धर्म व कानून में महिलाओं के सम्मान से जुड़ी तमाम अवधारणाओं का तब कोई मतलब ही नही रह जाता, जब हम अपनी पीढ़ियों को ऐसे संकुचित राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाते हैं, जिसमें सिर्फ अपने पसंदीदा और चुनिंदा धर्म, जाति या जेंडर के व्यक्तियों को राष्ट्र का नागरिक माना जाये, न कि प्रत्येक धर्म, जाति या जेंडर के व्यक्ति के प्रति मानवता के भाव हेतु इस भावी पीढ़ी को प्रशिक्षित किया जाये। हम अपनी पीढ़ियों को जेंडर संवेदनशील बनाने के स्थान पर उनके मस्तिष्क में पुरुषों की सर्वोच्चता की अवधारणा स्थापित कर देना चाहते हैं। हम पर्दे के पीछे हर महिला एवं बेटी को पुरुषों के अधीन रहने और पुरुषों के उपभोग की वस्तु माने जाने हेतु प्रशिक्षित कर देना चाहते हैं। हम अपने बच्चों को धर्म पढ़ाते हैं, जाति पढ़ाते हैं, वर्ग पढ़ाते हैं, लेकिन मानवता का पाठ नहीं पढ़ाते हैं, उन्हें कभी भी जेंडर संवेदनशील बनाने का प्रयास ही नहीं करते। हम भूल जाते हैं कि जिस वक्त हम किसी रेप पीड़िता या रेप के आरोपी का वर्गीकरण उसकी जाति या धर्म के आधार पर कर रहे होते हैं, उस वक्त हम अप्रत्यक्ष रूप से हमारी जाति-धर्म के उन बलात्कारियों के साथ खड़े होते हैं, जिनका धर्म सिर्फ और सिर्फ हवस है। कड़वा सच तो ये भी है कि देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा पूर्वाग्रहों से मुक्त गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से आजादी के सात दशक बीत जाने के बाद भी वंचित ही है। जबकि दूसरी ओर हमारा पूरा समाज, राजनीति, इलैक्ट्राॅनिक, प्रिंट और सोशल मीडिया सब मिलकर कबीर सिंह जैसे चरित्रों को महिमामण्डित कर स्त्री को सिर्फ एक सैक्स आॅब्जैक्ट के रूप में स्थापित कर देना चाहते हैं। हम अपनी पीढ़ियों को सदैव अभ्यस्त कर देना चाहते हैं कि परिवारों और कुलों का नाम आगे बढ़ाने का काम सिर्फ बेटे ही कर सकते हैं। हम अपने बेटों में एक प्रकार का नकारात्मक भाव स्थापित करने हेतु आतुर रहते हैं, जिसमें बेटियां उनके समकक्ष आकर खड़ी ही न हो सकें। यथार्थ यही है कि जिस समाज में डा.प्रियंका रेड्डी जैसी बेटियों को सामूहिक रेप के बाद जिंदा जला दिया जाता है, उस समाज की स्थापना में हम सब बराबर के ही दोषी हैं। शासन-प्रशासन की लचर व्यवस्था को भले ही दोषी ठहराया जाये, लेकिन ऐसा समाज और ऐसी व्यवस्था स्थापित करने में हम सबकी भूमिका को भी नकारा नहीं जा सकता। बेशक शासन-प्रशासन को ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाले बलात्कारियों को रुह कॅंपा देने वाली सजा दिलाये जाने के साथ-साथ महिलाओं व बेटियों की सुरक्षा के प्रति अधिक गम्भीर होना आवश्यक हो गया है। लेकिन साथ ही हमें अपनी सामाजिक संरचना के गठन में छुपे उन कारकों पर भी गौर करना ही होगा, जो ऐसे समाज की स्थापना के लिये उत्तरदायी हैं, जहां जेंडर संवेदनशीलता का बेहद अभाव है।


            (लेखक जेंडर संवेदनषीलता विषय पर शोधरत हैं)