खस्ताहाल अर्थव्यवस्था में सुधार की दरकार







अब इस बात में कोई शक सुबहा नहीं बचा है कि देश की अर्थव्यवस्था की हालत बेहद खस्ता हो गई है। मौजूदा वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में जब जीडीपी की दर साढ़े पांच फीसदी के आस पास सिमट गई तब तक सरकार की ओर से वैश्विक मंदी और देश के बदलते आर्थिक परिदृश्य के अलावा मांग में कमी और चुनावी समर में व्यस्तता वगैरह का बहाना बनाकर यह भरोसा दिलाया गया कि मामले को जल्दी ही संभाल लिया जाएगा। लेकिन आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार की नाकामियों का ही नतीजा है कि मौजूदा वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में देश की विकास दर बीते छह सालों के मुकाबले सबसे कम दर्ज हुई है। इस मसले को लेकर विरोधी दलों की ओर से किये जा रहे आक्रामक हमले के बीच अब सरकार के सगे साथियों व अपनों के बीच भी भारी उबाल और असंतोष का माहौल दिखाई पड़ रहा है। जहां एक ओर ताजा आंकड़ों के सामने आने के बाद भाजपा की ओर से सरकार का खुल कर बचाव करने की परंपरा का निर्वाह करने से परहेज बरता जा रहा है वहीं दूसरी ओर जदयू और अकाली दल सरीखे राजग के घटक दलों ने सरकार की आर्थिक नीतियों को लेकर खुले तौर पर अपना असंतोष दर्ज कराते हुए इससे निपटने के लिये नसीहतों की बड़ी पोटली खोल दी है। अकाली दल ने तो सीधे तौर पर सरकार में प्रतिभा की कमी का इल्जाम मढ़ दिया है वहीं दूसरी ओर जदयू ने सरकार की आर्थिक नीतियों को निष्प्रभावी व देश के लिये नुकसानदेह करार देते हुए इसमें तत्काल तब्दीली किये जाने की मांग कर दी है। यहां तक कि भाजपा के राज्यसभा सांसद व आर्थिक मामलों के वरिष्ठ जानकार सुब्रमण्यम स्वामी ने देश के मौजूदा आर्थिक परिदृश्य को लेकर भारी निराशा का इजहार करते हुए यहां तक कह दिया है कि अगर समय रहते सरकार ने अपनी नीतियों में व्यापक सुधार की राह नहीं पकड़ी तो निकट भविष्य में विकास दर के आंकड़े और भी तेजी से गोंता लगाएंगे। स्वामी ने तो अर्थव्यवस्था के ताजा आंकड़ों को खारिज करते हुए वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण की योग्यता, दक्षता और कार्यक्षमता पर ही सीधे शब्दों में सवाल खड़ा कर दिया है। आर्थिक मोर्चे पर भारी नाकामी के दौर से गुजर रही मोदी सरकार पर सीधा हमला करते हुए स्वामी ने कहा कि अव्वल तो निर्मला को अर्थशाष्त्र का ज्ञान ही नहीं है और दूसरे जीडीपी के मौजूदा आंकड़ों में भले ही विकास दर साढ़े चार फीसदी बताई जा रही हो लेकिन हकीकत में यह डेढ़ फीसदी पर आ चुकी है। स्वामी ने सरकार की ओर से काॅरपोरेट टैक्स में छूट देने की सरकार की पहल को अर्थव्यवस्था के लिये नुकसानदेह करार देते हुए बताया कि इस छूट का सदुपयोग करके देश की अर्थव्यवस्था को गति देने में सहयोग करने के बजाय काॅरपोरेट कंपनियां इस रकम को अपना बकाया कर्ज चुकाने में खर्च कर रही हैं। स्वामी की ही तर्ज पर केन्द्र की सत्ता में साझेदारी कर रही शिरोमणी अकाली दल के सांसद नरेश गुजराल ने आर्थिक हालातों को बेहद चिंताजनक करार देते हुए कहा कि आर्थिक मंदी की सबसे बड़ी वजह बढ़ती बेरोजगारी है। गुजराल ने आर्थिक मसले पर सहयोगी दलों से सलाह-मशविरा नहीं किये जाने को लेकर भी असंतोष का इजहार करते हुए कहा कि राजग में बढ़ते असंतोष का ही नतीजा है कि शिवसेना ने अपनी राहें अलग कर ली हैं और कई अन्य सहयोगी भी इस दिशा में गंभीरता से विचार कर रहे हैं। उन्होंने साफ लहजे में कहा कि राजग के सहयोगी सत्ता में हिस्सेदारी के लिये मरे नहीं जा रहे लिहाजा सरकार के संचालकों को दबदबा बनाकर अपनी मनमानी करने के बजाय सहयोगी दलों के साथ सलाह-मशविरा करके नीतियां तय करने की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिये। गुजराल की तर्ज पर राजग की घटक जदयू के वरिष्ठ नेता केसी त्यागी ने भी आर्थिक मसलों पर सरकार द्वारा अमल में लायी जा रही मनमानी नीतियों के प्रति आक्रोश प्रकट करते हुए कहा कि मुनाफा कमा रही परिसम्पत्तियों में विनिवेश के द्वारा राजस्व जुटाने की नीतियों से ना तो अब तक देश को कोई लाभ हुआ है और ना आगे हो सकता है। जदयू ने मौजूदा आर्थिक चुनौतियों से निपटने के लिये अर्थशाष्त्रियों व जानकारों की बैठक बुलाने की सलाह देते हुए कहा है कि इस मामले में राजनीति पूर्वाग्रह का प्रदर्शन नहीं किया जाना चाहिये और समस्या का हल तलाशने में विरोधी दलों के शीर्ष नेताओं से सलाह लेने में भी संकोच नहीं किया जाना चाहिये। सलाह तो सभी दे रहे हैं और आलोवनाएं भी पुरजोर हो रही हैं लेकिन सवाल है कि समस्या जब सामने दिख रही है तब इसके जिम्मेवार की पहचान क्यों नहीं की जा रही है। क्यों नहीं यह स्वीकार किया जा रहा है कि विकास का जो माॅडल गुजरात में कामयाब रहा था पह पूरे देश पर एक साथ लागू करना आत्मघाती साबित हो रहा है। सरकार की ओर से यह बहाना भी नहीं बनाया जा सकता कि उसके पास फंड की कमी हो रही है जिसके कारण अर्थव्यवस्था की गति लगातार सुस्त हो रही है। फंड तो रिजर्व बैंक ने भी तकरीबन पौने दो लाख करोड़ का दिया है और विनिवेश के माध्यम से भी एक लाख करोड़ की उगाही की जा रही है। पैसे का प्रवाह भी बाजार की ओर करने के लिये आंखें मूंद कर न सिर्फ मुद्रा योजना में खुले हाथों से पैसा बांटा गया है बल्कि बैंकों को लोन मेला आयोजित करके बाजार में पैसा डालने के लिये प्रेरित किया गया है। यहां तक कि किसानों को दो मानधन किश्तों का भुगतान भी इसी वित्त वर्ष में किया गया है और बीते दिनों सरकारी कर्मचारियों के डीए में भी इजाफा किया गया और रेलवे कर्मियों को 75 दिनों का बोनस भी दिया गया। इसके बावजूद बाजार सुस्त पड़ा है और निर्माण इकाइयों की भट्ठी ठंडी पड़ रही है तो इसकी सबसे बड़ी वजह सरकार की पारदर्शिता के नाम पर बाजार में भय का वातावरण बना दिया जाना है। वर्ना बाजार में नकदी तो नोटबंदी के वक्त के मुकाबले डेढ़ गुना अधिक प्रवाहित किया जा चुका है लेकिन नतीजा ढ़ाक के तीन पात ही है। लिहाजा जरूरत है समावेशी आर्थिक नीति की जिसमें पैसे का प्रवाह नीचे से ऊपर की ओर हो। साथ ही वित्त विभाग का संचालन भी दक्ष हाथों में देने से संकोच करने का कोई मतलब नहीं है। वर्ना कहीं ऐसा ना हो हेठी और हेकड़ी में बर्बादी इतनी अधिक हो जाये जिसे बाद में संभालना संभव ही ना हो सके।