आज की जरुरत है पारिवारिक व्यवस्था की मजबूती

(डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा)


पिछले दिनों दादा साहेब फाल्के पुरस्कार वितरण समारोह में उपराष्ट्र्पति वेंकैया नायडू ने पारिवारिक व्यवस्था के विखराव पर गहरी चिंता व्यक्त करने के साथ ही पारिवारिक व्यवस्था को फिर से मजबूत करने की आवश्यकता प्रतिपादित की है। उनका मानना है कि आज की पीढ़ी में मानवीय मूल्यों की जो तेजी से गिरावट आई है उसका एक बड़ा कारण पारिवारिक व्यवस्था का कमजोर होना है। बदलते सामाजिक सिनेरियों में यदि कुछ बदला है तो वह हमारी पारिवारिक व्यवस्था में बदलाव आया है। पिछले कुछ दशकों में हमारी सनातन पारिवारिक व्यवस्था में तेजी से बदलाव आया है और इस बदलाव का बड़ा कारण है आज का आर्थिक सिनेरियों। हमारा सामाजिक ताना-बाना इस तरह का बना हुआ रहा है कि संयुक्त परिवार बोझ ना होकर परस्पर सहयोग व समन्वय के साथ मानवीय मूल्यों का वाहक रहा है। पारिवारिक व्यवस्था के तहस नहस होने के परिणामों का ही परिणाम है कि आज इस पर समाज विज्ञानी गंभीरता से विचार करने लगे है। हमारे देश में ही नहीं अपितु योरोपिय देश भी इस विषय में गंभीर है। दुनिया के देशों में इंग्लैण्ड ने तो इस पर गंभीर चिंतन करना आरंभ कर दिया हैं वहीं पर मई की 15 तारीख को दुनिया के देशों द्वारा परिवार दिवस के रुप में मनाना शुरु कर दिया है। हांलाकि संयुक्त राष्ट्र् संघ द्वारा 1993 में परिवार दिवस घोषित करने और 1996 से परिवार दिवस मनाए जाने के बावजूद यह परवान नहीं चढ़ पाया है। 
 दरअसल शहरीकरण और बाजारीकरण से परिवार व्यवस्था में तेजी से बिखराव आया है। एक समय था तब परिवार की ताकत परिवार के सदस्यों की संख्या से आंकी जाती थी आज इसके विपरीत जितना छोटा परिवार उतना ही उसे संपन्न माना जाता है। इसका कारण भी साफ है कि आज आर्थिक युग है। ग्रामीण संस्कृति और ग्राम आधारित अर्थ व्यवस्था का स्थान शहरी संस्कृति ने ले लिया है। परिवार को संजोये रखना आज सारी दुनिया की समस्या हो गई है। हांलाकि सारी दुनिया में वसुदेव कुटुंबकम का उद्घोष करने वाले हमारे देश में ही परिवार नामक संस्था को बनाए रखना मुश्किल हो गया है। परिवारों के बिखराव से सारी दुनिया चिंतित होने के  कारण 1993 में ही संयुक्त राष्ट््र संघ ने मई की 15 तारीख को अन्तरराष्ट्र्ीय परिवार दिवस मनाने की घोषणा की। 1996 से सारी दुनिया में प्रतिवर्ष परिवार दिवस मनाना भी शुरु कर दिया। परिवार की अहमियत को इसी से समझा जा सकता है कि दादा-दादी और नाना-नानी की कहानियां जिस तरह से बच्चों में  एक दूसरे के साथ रहने, वस्तुओं को साझा करने, मानवीय मूल्यों को किस्सों कहानियों से ग्रहण करने और बांट चूंट कर खाने खेलने की जो संस्कृति और संस्कार आते थे वे अब पुराने जमाने की बात हो गई है। दरअसल एक समय था जब सामान्यतः डिलीवरी नानी के घर होती थी उसका स्थान आज हास्पिटल्स ने ले लिया है। भले ही मजाक में ही सही पर आज होने यह लगा है कि बच्चे नाना-नानी के घर से ज्यादा अस्पतालोें के चक्कर लगाने लगे हैं। कुछ दशकों पुरानी पीढ़ी को ही याद होगा कि ज्योंही छुट्टियों की तारीखें पास आती परिवार की दादा-दादी या नाना नानी के यहां जाने का कार्यक्रम बन जाता था। एक ही घर में यहां तक कि एक ही कमरे बच्चे दादी नानी की रजाई में दुबक कर कहानियां सुनने सुनाने में लग जाते। घर में धमा चैकड़ी मची रहती। आज तो स्थितियां ही बदल गई है। छुट्टिया परिवार के साथ बिताने के स्थान पर कहीं घुमने घुमाने सैर सपाटे में बिताने पर जोर रहता है। यही कारण है कि परिवार के साथ रहने से जो संस्कार आते हैं, जो परिस्थितियां बनती हैं उनमें साथ रहकर जो समझा जाता है,दुख-दर्द या हसंी खुशी के पलों को बांटा जाता है वह अलग ही अनुभव होता है। आज की पीढ़ी के लिए यह किसी अजूबे से कम नहीं है। 
  उपराष्ट्र्पति वेंकैया नायडू की चिंता इस मायने में अधिक महत्वपूर्ण हो जाती है कि परिवार नामकी जो संस्था रही है वह तेजी से नष्ट होने की और बढ़ रही है। एकल परिवारों की संख्या में और अधिक तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। जनगणना के आंकड़ों के अनुसार ही केवल 14 फीसदी परिवार ऐसे हैं जिनमें दो विवाहित जोड़े एक साथ रहते हैं। चार विवाहित जोड़े एक घर में रहने वाले परिवारों की संख्या तो एक फीसदी भी नहीं है। एक ही छत के नीचे तीन-चार भाइयों के रहने की बात करना तो बेकार है। हांलाकि अब परिवार छोटे होने लगे हैं। बच्चे हद मार के एक या दो ही होते हैं। लड़के लड़की का भेद खत्म हो रहा है। आज की युवा पीढ़ी में अधिकांश परिवारों में पति-पत्नी दोनों ही नौकरी पेशा होने से परिवार का ताना बाना बदलता जा रहा है। बच्चे के पैदा होते ही उसके केरियर के प्रति पेरेन्टस अधिक चिंतित होने लगते हैं। पहलेे क्रेच में, उसके बाद प्रेप में और फिर अच्छे से अच्छे स्कूल में प्रवेश दिलाने के साथ ही कोचिंग की चिंता सताने लगती हैं। बच्चों को दो पल अपनों के बीच बिताने का मौका ही नहीं मिल पाता हैं। रहा सहा मोबाइल क्रान्ति ने पूरा कर दिया है। कहने को सोशियल मीडिया भले ही सोशियल मीडिया हो पर तीन या चार सदस्यों के परिवार को भी एक साथ दो बात करने में बाधक बनता जा रहा हैं यह सोशियल मीडिया। रहा सहा टीवी चैनलों के सास बहू के सीरियल या क्राइम से जुड़े सीरियल पूरा कर देते हैं। फिर साथ बैठने, एक दूसरे की भावनाओं को समझने की बात करना बेमानी हो जाता है। योरोपीय देश खासतौर से इंग्लैण्ड में अब लोगों को एकल परिवार से मोह भंग होता जा रहा है। सामाजिक बदलावों और संकेतों को देखते हुए संयुक्त परिवार के महत्व को समझा जाने लगा है। यह सही है कि आज की पीढ़ी को रोजगार के चलते बाहर रहना पड़ता है। पर यह भी सही है कि अधिकांश कंपनियां अपने कार्मिकों को आवास सहित अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराती है। ऐसे में पेरेन्टस को साथ में रखने से कई समस्याओं का हल अपने आप ही हो जाता है। परिवार सदस्यों को एकजुटता में बांधे रखने का प्रमुख केन्द्र है और जब परिवार संस्था का अस्तित्व ही नहीं रहेगा तो फिर मानवीय संवेदना, परस्पर समन्वय, सहयोग और संवेदनशीलता की बात करना ही बेमानी होगा। यही कारण है कि आज समाज विज्ञानी इस समस्या को लेकर गंभीर होने लगे हैं।