ईरान को भी हिंसक और टकराव की भूमिका छोड़नी होगी

(विष्णुगुप्त)


दुनिया मे तीन ऐसे शासक है जो हमेशा दुनिया को चैकाते हैं, आश्चर्यचकित करते हैं, हैरानी-परेशानी में डालते हैं, उनके निर्णयों कि किसी को भी मालूम नहीं होता है पर जब मालूम होता है तो फिर दुनिया में हलचल पैदा होती है, कूटनीतिक गर्मी पैदा होती है, दुनिया की जनमत ही नहीं बल्कि दुनिया की कूटनीति भी पक्ष-विपक्ष में विभाजित हो जाती है। ये तीनों नेताओं के सामने चुनौतियां भी एक ही जैसी हैं, यानी कि मुस्लिम कट्टरपंथी, मुस्लिम आतंकवादी और विफल राष्ट्र तथा मजहबी तौर पर पागलपन के शिकार राष्ट्र। ये तीन शासक हैं, पहला भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, दूसरा सोवियत संघ के प्रधानमंत्री ब्लादिमीर पुतिन और तीसरा अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प। कभी ये तीनों राष्ट्र अपनी-अपनी सभ्यता और संस्कृति के लिए विख्यात रहे हैं पर जैसे-जैसे इनके यहां इस्लाम के नाम पर आने वाली आबादी बढती गयी, उनकी मजहबी और अतिरंजित विचारों पर उदासीनता पसरी, राजनीतिक तौर पर इन्हें संरक्षण मिला, इनकी घृणास्पद सक्रियताओं पर प्रतिक्रिया नहीं हुई तो फिर राष्ट्रीय अस्मिता और अस्तित्व पर ही प्रश्न चिन्ह खडे हो गये। 
                   दुनिया में कई ऐसे मजहबी देश भी हैं जो न केवल एक विफल देश के रूप में कुख्यात हैं बल्कि मजहबी तौर पर भी पागलपन के शिकार हैं, ऐसे देश दुनिया के सामने एक नहीं बल्कि कई गंभीर, खतरनाक और विनाशक चुनौतियां खडी कर रहे है, इन सभी नकारात्मक चुनौतियों से दुनिया के सभ्य, विकासशील और विकसित देश सीधे तौर पर प्रभावित हो रहे हैं, रक्तरंजित हिंसा और विनाशक विचारो के प्रचार-प्रसार से दूनिया भी दग्ध हैं। क्या यह सही नहीं है कि दुनिया की शांति, सदभाव और सहिष्णुता को बार-बार लहुलूहान नही किया जाता है, निर्दोषों का खून नहीं बहाया जाता है, फिर ऐसे समूहों और देशों को संरक्षण प्राप्त नहीं होता है? जब क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती है तो फिर बचाव में मानवाधिकार का शोर मचा दिया जाता है, मजहबी तौर पर प्रताड़ित करने का शोर मचा दिया जाता है, फिर मजहबी असहिष्णुता रखने वाली आबादी की गोलबंदी भी शुरू हो जाती है, मजहबी गोलबंदी के खतरनाक दुष्परिणाम भी सामने आते हैं।
  अभी-अभी डोनाल्ड ट्रम्व ने अपने एक निर्णय से दुनिया को फिर चैंकाया है, आश्चर्यचकित किया है, हैरानी-परेशानी में डाला है। पर इसी बहाने एक देश का आतंकवादी चेहरा जो दुनिया की जनमत के नजरों से छिपा था वह बाहर आ गया। डोनाल्ड ट्रम्प ने एका एक ईरान के ऐसे जनरल को मार गिराया जो न केवल ईरान के सैनिक मिशन का अगुवा था बल्कि मुस्लिम दुनिया के अंदर में चल रहे गृहयुद्धों को भडकाने और आतंकवाद के माध्यम से सत्ता स्थापित-निर्धारण करने के लिए अभियानरत था। अमेरिका के हवाई हमले में जिस कासिम सुलेमानी की मौत हुई है वह कोई शांति का पुजारी नहीं था, वह कोई सदभाव का अगुवा नही था, वह कोई सहिष्णुता का सहचर नही था। फिर वह क्या था, उसकी सैनिक गतिविधियां क्या था, इराक उसका कोई अपना देश भी नहीं था, इराक कोई ईरान का उपनिवेशिक ठिकाना भी नहीं था, इराक एक स्वतंत्र देश है, उसकी स्वतंत्र मान्यताएं विराज मान है, फिर ईरान का शीर्ष सैनिक कासिम सुलेमानी इराक में क्या कर रहा था? इराक में वह अपने नेतृत्व में अमेरिकी सैनिक अड्डों पर हमला क्यो करवा रहा था? इराक में आतंकवादी हमले क्यो करवा रहा था? क्या वह आतंकवाद का नेतृत्व कर इराक में राजनीतिक स्थिरता को भंग नहीं कर  रहा था? इन सभी प्रश्नो का उत्तर तो ईरान से मांगा ही जाना चाहिए पर दुनिया की एंकाकी सोच इस रास्ते में बाधक है और दुनिया भर मे इस्लाम के नाम पर फैलाये जा रहे आतंकवाद व भीषण विचारों का संरक्षण जैसा है।
   ईरान का कुदस फोर्स दुनिया के लिए भीषण और खतरनाक है, कुदस फोर्स की अवैध उपस्थिति उन सभी देशों मे है जहां पर इस्लाम के नाम पर आतंकवाद का दौर जारी है, जहां पर इस्लाम के नाम पर सत्ता हडपने का खेल जारी है, जहां पर हमारा इस्लाम अच्छा और तुम्हारा इस्लाम अच्छा नहीं है? इराक में सद्दाम हुसैन के पतन के बाद यह इस्लामिक लडाई बहुत ज्यादा भीषण और अमानवीय हुई है। यह सही है कि इराक में सद्दाम हुसैन का पतन कोई अच्छी कूटनीति नहीं थी, अमेरिका की कोई सही सुझ-बूझ नहीं थी? यह अमेरिका की सबसे बडी भूल थी, जिसकी कीमत अमेरिका आज तक चुका रहा है, सद्दाम हुसैेन अपनी सत्ता में भीषण विचारों को कुचल कर रख दिया था। इराक एक शिया बहुलता वाला देश है पर सद्दाम हुसैन सुन्नी थे। अभी-अभी इराक के अंदर में शिया-सुन्नी संघर्ष कोई शांत नही है बल्कि जारी है, वह भी भीषण तौर पर । ईरान जहां इराक मे शिया बहुलता वाली सरकार की स्थापना चाहता है और सुन्नी समर्थक राजनीति को अपनी कुदस सेना के माध्यम से कुचल कर अमेरिका को अपनी शक्ति का अहसास कराना चाहता है वहीं अमेरिका यह कभी नहीं चाहता है इराक में ईरान की समर्थक सरकार की स्थापना हो या फिर ईरान समर्थित लोगों का वर्चस्व कायम हो सके। इराक के अंदर के कई आतंकवादी संगठन हैं जो पूरे इराक पर कब्जे करने के लिए हिंसक और तेजाबी संघर्ष को जारी रखें हैं। 
  अब जो पर्दा उठा है  उस पर गौर किया जाना चाहिए। ईरान की कुदस फोर्स सिर्फ इराक में ही सक्रिय नहीं था, सिर्फ इराक में ही आतंकवादी गतिविधियों में ही नहीं लगा था। बल्कि उसकी सक्रियता और स्पष्ट उपस्थिति सीरिया में भी थी, लेबनान में भी है और सउदी अरब के पडोसी देशों में भी है। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि इन सभी मुस्लिम देशों में ईरान की कुदस सेना की उपस्थिति क्यों थी? अगर ईरान की कुदस सेना की उपस्थिति प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष थी तो फिर उसकी सूचना पूरी दुनिया या फिर पूरी दुनिया को नियंत्रित करने वाले संस्थान संयुक्त राष्ट्रसंघ को क्यो नहीं दी गयी थी। क्या यह सही नहीं है कि संयुक्त राष्ट्रसंघ उन सभी मुस्लिम देशों में शांति और सदभाव स्थापित करने की कोशिश में है जहां पर इस्लाम के नाम पर हिंसा जारी है, हमारा इस्लाम अच्छा और तुम्हारा इस्लाम खराब है के नाम पर गृहयुद्ध जारी है। दुनिया की जनमत के एक बडे हिस्से की सोच भी यहां उल्लेखनीय है। दुनिया की जनमत के बडे हिस्से की सोच यह है कि ईरान भी कोई स्थिरता वाला देश है, ईरान भी कोई अल्पसंख्यको को सम्मान करने वाला देश नहीं है, ईरान भी मानवाधिकार के संरक्षण वाला देश नहीं है, ईरान भी अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक का सम्मान करने वाला देश नही हैं, ईरान तो एक बर्बर इस्लामिक देश है जहां पर इस्लाम के ही दूसरे हिस्सो पर हिंसा होती है, मानवाधिकार का कब्र बना रखा गया है, ईरान ने भी ब्रिटेन और अमेरिका की जंगी जहाजों और माल वाहक जहाजो पर विनाशक कार्रवाई कर युद्ध जैसी स्थिति कायम करने का दुस्साहस कर चुका है।
               ईरान की विनाशक नीति से दो ऐसे देश डरे हुए हैं जो अमेरिका के बेहद करीबी भी है और सैनिक भागेदारी भी है इनकी। ये दोनों देश हैं इजरायल और सउदी अरब। इजरायल के खिलाफ भयानक और मजहबी सोच का प्रदर्शन ईरान बार-बार करता है। कभी इजरायल ने ही कासिम सुलेमानी को मार गिराने का मास्टर प्लान बनाया था पर उस समय अमेरिका ने उसे रोक दिया था। इजरायल का कहना था कि ईरान फिलिस्तीन में सैनिक दखल दे रहा है, फिलिस्तीन के आतंकवादी संगठनों को हथियार और प्रशिक्षण दे रहा है, आर्थिक सहायता भी दे रहा है। जबकि सउदी अरब भी ईरान की बढती सैनिक गतिविधियों से चिंतित था। सउदी अरब की चिंता का विषय यह भी था कि ईरान लेबनान, सीरिया और लीबिया जैसे मुस्लिम देशों में सैनिकों की गतिविधियों को संचालित कर रहा है, सिर्फ इतना नहीं बल्कि वह सउदी अरब के पडोसी देशों में भी ईरान का गैर कूटनीतिक वर्चस्व बढा है,आतंकवादियों को संरक्षण और सहायता देकर अस्थिरता कायम करने के आरोप है। जानना यह भी जरूरी है कि सउदी अरब सुन्नी तो फिर ईरान शिया देशों का नेतृत्व करते हैं। अमेरिका की मजबूरी सिर्फ इराक में शांति और राजनीतिक स्थिरता को कायम करना भर नहीं है बल्कि अपने समर्थक सउदी अरब और इजरायल की असुरक्षा चिंताओं का भी समाधान करना है। 
                 दुनिया चाहे जितना भी हो-हो कर ले पर डोनाल्ड ट्रम्प पर कोई फर्क पडने वाला नहीं है, अब तक डोनाल्ड ट्रम्प अपनी आलोचनाओ को खारिज कर आगे बढते रहे हैं और अपनी सैनिक और असैनिक कार्यवाहियो से न केवल मुस्लिम देशो बल्कि यूरोप को भी डराते-धमकाते रहे हैं। इसलिए यह कहना सही नहीं होगा कि ईरान के बदले की कार्रवाइयों से डोनाल्ड ट्रम्प डर जायेगा। बल्कि डोनाल्ड ट्रम्प युद्ध भी लड सकता है। इसलिए ईरान की भी जिम्मेदारियां है जिसे पालन करते हुए  उसे युद्ध के अवसर पैदा होने से रोकना होगा। ईरान को भी अमेरिका के खिलाफ अनावश्यक घेराबंदी रोकनी होगी, सैनिक उछल-कूद रोकना होगा। दूसरे देशों मे अपनी सैनिक गतिविधियों को रोकना होगा, आतंकवादी संगठनों के मददगार की भूमिका छोडनी होगी। ईरान और अमेरिका के बीच युद्ध हुआ तो फिर इसकी कीमत पूरी दुनिया चुकायेगी।