आत्मनिर्भर भारत के सपने, इसके निहितार्थ और गिनी चुनीं चुनौतियां
























(कमलेश पांडेय)

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोरोना प्रकोप से त्रस्त, आर्थिक नजरिए से ध्वस्त और अंतर्मन से जले-भुने भारतवासियों के लिए 20 लाख करोड़ रुपये के जिस आर्थिक पैकेज का ऐलान किया है, वह बदलते वक्त के लिहाज से एक  दूरदर्शितापूर्ण कदम है। साथ ही, जितनी चतुराई से उन्होंने लोकल को वोकल बनकर ग्लोबल बनाने का आह्वान किया है, वह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की लगभग तीन दशकीय परिलक्षित मानसिकता पर एक करारा चोट भी है। लगे हाथ पीएम मोदी ने आत्मनिर्भर भारत बनाने के सपने संजोते हुए समाज के सभी संघर्षशील वर्गों को संतुष्ट करने की जो भागीरथ पहल की है, उसके गहरे आर्थिक और सियासी निहितार्थों की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है। 
 

हालांकि, जब तक हमलोग इन सुनहरे सपनों के मुकाबले रह रह कर समुपस्थित होने वाले बाधक तत्वों यानी कि प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से उनसे जुड़ी हुई विभिन्न चुनौतियों की शिनाख्त नहीं कर लेंगे, उनकी बारीकियो को नहीं समझ लेंगे, तबतक प्रधानमंत्री मोदी के नेक प्रयासों को पूरा करने के खातिर अपना समग्र और सर्वश्रेष्ठ योगदान नहीं दे पाएंगे। दो टूक शब्दों में कहें तो सकारात्मक जनभागीदारी और स्पष्ट नियम-परिनियम के बल-बूते ही इस दुर्लभ लक्ष्य को साधा जा सकता है। लेकिन सवाल फिर वही कि जिस देश में समान मताधिकार का परिवेश तो हो, किंतु अन्य समानताओं को प्रोत्साहित करने वाले नियम-कानूनों को बढ़ावा देने से वहां का अभिजात्य वर्ग ही डरता हो, वहां पर समझा जा सकता है कि जनसामान्य की वास्तविक परिस्थितियां कितनी विपरीत होंगी।

 

आम तौर पर देखा जाता है कि हमारा सत्ताधारी वर्ग और उसका मातहत प्रशासन सर्वहितकारी नीतियों को प्रश्रय देने के बजाय बहुमत हितकारी नीतियों को ज्यादातर तरजीह देता है, जो अनुचित है। यही नहीं, परंपरागत चार सामाजिक वर्णों की तरह उसने भी चार ग्रेड स्थापित कर रखे हैं, जिसकी झलक व्यवस्था के विभिन्न अंगों में कहीं न कहीं दिखाई पड़ जाती है। दरअसल, अभिजात्य वर्गों द्वारा समाज की बहुसंख्यक जमात को सबकुछ समान रूप से नहीं बांटना पड़े, अथवा कदापि नहीं देना पड़े, इसके लिए उसने तरह तरह के भावनात्मक कुचक्र ईजाद कर रखें हैं। अमूमन स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे लोकतांत्रिक चरित्र से इतर उसने जिस जातीय, साम्प्रदायिक, वर्गवादी और नाना प्रकार के भेदभाव मूलक चिंतन को प्रश्रय दिया है, उससे जो सामाजिक व सियासी विसंगतियां पैदा हुई हैं, और इसकी आड़ में रह रह कर जो सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक व सियासी गतिरोध पैदा किया गया, उससे शांतिपूर्ण और सहअस्तित्व वाले समाज का सपना ही दिवास्वप्न बन कर रह गया है। ऐसे में आत्मनिर्भर भारत की सोच कितनी कारगर साबित होगी, वक्त बताएगा।

 

साफगोई पूर्वक कहें तो कथित भारतीय अभिजात्य वर्ग ने सामाजिक न्याय और साम्प्रदायिक सद्भाव आदि की आड़ में जिन मनोनुकूल आर्थिक हित बर्द्धक नीतियों को तरजीह देता-दिलवाता आया है, उसी के वास्ते बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से अपनी कम्पनियों की सांठ-गांठ करता-करवाता आया है, वह पीएम मोदी के इस नेक प्रयास को सफलीभूत होने देगा, इस बारे में किसी भी प्रबुद्ध व्यक्ति का सशंकित होना स्वाभाविक है। इसलिए यह जरूरी है कि हमारी संसद-विधानमंडलें, समतामूलक समाज और अर्थव्यवस्था की स्थापना हेतु दलित-पिछड़े-अकलियत-गरीब सवर्ण जैसी तमाम भेदभाव मूलक और निकृष्ट व्यवस्थाओं के खिलाफ निर्णायक कदम उठाएं, ताकि आत्मनिर्भर भारत बनाने के पीएम मोदी के सपनों को निकट भविष्य में न्यूनतम चुनौतियों का सामना करना पड़े। 

 

कहना न होगा कि जिस प्रकार से तमाम बड़े निर्णयों को लेने में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सदैव आगे रहे हैं, वो इन सूक्ष्म वैचारिक पहलुओं, जिससे आम मानव मन गहरे तक प्रभावित होता आया है, के संदर्भ में भी दो टूक निर्णय लेने के लिए अपनी संसद को, अपनी राज्य सरकारों के विधान मंडलों को राजी कर लेंगे, ताकि नए भारत के सपनों को आत्मनिर्भर भारत का पंख  लगाया जा सके। यहां यह भी स्पष्ट कर दें कि जब सुधारों के जरिए ही नए भारत के नवनिर्माण का सपना संजोया गया है, तो वह आम जनजीवन के हर क्षेत्र में दृष्टिगोचर भी होना चाहिए।

 

इन गूढ़ अर्थों में समकालीन कोरोना आपदा अपने देश के लिए जो संकेत, संदेश और अवसर लेकर उपस्थित हुआ है, उसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व उनकी शार्प स्वभाव वाली टीम ने तो समझ लिया है, और उसी प्रकार से अपना  व्यवहार भी प्रदर्शित किया, लेकिन जब तक हमलोग इसे समझेंगे नहीं, औरों को समझाएंग नहीं, तब तक उनका यह साहसिक कदम भी पक्ष-प्रतिपक्ष की सियासत की दो पाटों में महज पिसकर रह जायेगा। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सम्बोधन में जिस तरह से लक्ष्य साधक चार एल यानी लैंड, लेबर, लिक्विडटी और लॉ से जुड़ी बारीकियों पर जोर देते हुए इकोनॉमी, इंफ्रास्ट्रक्चर, सिस्टम, डेमोग्राफी और डिमांड जैसे पांच पिलरों को मजबूती देने का आह्वान किया है, उससे यह साफ है कि इन नौ शब्दों की सीढ़ियों के सहारे आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। इसलिए इस पर अविलम्ब फोकस किये जाने की जरूरत है।

 

इस बात में कोई दो राय नहीं कि सरकार की नई घोषणाएं देश में आर्थिक सुधारों के एक क्रांतिकारी दौर की शुरुआत कर चुकी है। यह पैकेज देश को आत्मनिर्भर बनाने में अहम भूमिका निभाने वाले कुटीर, लघु, मझोले उद्योगों के साथ ही बड़े उद्यमियों, हर मौसम में दिन-रात परिश्रम करने वाले किसानों व श्रमिकों और ईमानदारी से कर अदा करने वाली आम जनता के लिए भी राहत लेकर आया है। यह रिफॉर्म्स खेती से जुड़ी पूरी सप्लाई चेन में दिखाई पड़ेगा, ताकि किसान भी सशक्त हो व कोरोना जैसे संकट का भविष्य में सामना कर सके। इसमें देश के विभिन्न सेक्टर में संगठित और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के लिए भी कई बातें हैं। इससे स्पष्ट है कि जीडीपी के 10 प्रतिशत के समतुल्य इस आर्थिक पैकेज के सहारे पीएम ने सभी को संतुष करने का भरसक प्रयत्न किए हैं। अब इसमें वह कहां तक सफल हो पाएंगे, वक्त बताएगा। हमारा कुछ भी  कहना जल्दबाजी होगी।

 

वास्तव में, कोरोना प्रकोप अभिप्रेरित लगभग दो माह के चरणबद्ध राष्ट्रीय लॉक डाउन से परेशान अवाम को पीएम मोदी ने आत्मनिर्भर भारत बनाने का जो मूल मंत्र दिया है, उसकी सफलता सुनिश्चित करने के लिए अब हरेक भारतवासी को आगे आना चाहिए और अपना बेस्ट देने के खातिर सदैव ततपर रहना चाहिये। हमें यह समझना चाहिए कि भारत जब आत्मनिर्भरता की बात करता है तो वह आत्म केंद्रित व्यवस्था की वकालत नहीं करता। बल्कि भारत की आत्मनिर्भरता में संसार के सुख, सहयोग और शांति की चिंता होती है। भारत के लक्षण व कार्यों का प्रभाव विश्वकल्याण पर पड़ता है। निःसन्देह, कोरोना वायरस के प्रकोप ने दुनिया के समक्ष जो अकल्पनीय और अभूतपूर्व संकट पैदा कर दिया है, उसके मुकाबले हारना, थकना, टूटना और बिखरना मानव जाति का स्वभाव नहीं है। इसलिए हमलोग यदि इसको जीतने में असफल भी रहे तो इसके साथ साथ जीने के प्रयत्नों को भी बढ़ावा देंगे, अपेक्षित सावधानी बरतते हुए।