प्रकृति के सुकोमल कवि सुमित्रानंदन

(बाल मुकुन्द ओझा)


छायावादी युग के प्रमुख स्तंभकारों में से एक सुमित्रानंदन पंत का जन्म 20 मई, 1900 को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले के कौसानी गांव में हुआ। उत्तराखंड में जन्म होने के कारण शायद पंत जी का प्रकृति से अलग ही लगाव था। ऊंची पहाड़ियां, घने जंगल का चित्रण कई बार उनकी कविताओं में मिलता है। उन्होंने प्रकृति की  खूबसूरती को अपनी रचनाओं में बेहद सृजनात्मक एवं खूबसूरत तरीके से दर्शाया। उन्होंने सात वर्ष की उम्र में ही कविता लिखना आरंभ कर दिया था। उनकी प्रमुख रचनाओं में उच्छवास, पल्लव, मेघनाद वध, बूढ़ा चांद आदि शामिल हैं। उन्हें साहित्य में योगदान के लिए पद्मभूषण व ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। बाल्यकाल से ही अल्मोड़ा में हारमोनियम और तबले की धुन पर गीत गाने के साथ ही उन्होंने सात वर्ष की अल्पायु में अपनी सृजनशीलता व रचनाधर्मिता का परिचय देते हुए काव्य सृजन करना शुरू कर दिया। नन्हीं उम्र में नेपोलियन की तस्वीर को देखकर उनकी तरह अपने बालों को ताउम्र बड़े रखने का निर्णय लेने के साथ ही उन्होंने अपने नाम गुसाई दत्त को बदलकर सुमित्रानंदन पंत रख लिया। 
सुमित्रा नंदन पंत को आधुनिक हिंदी साहित्य का युग प्रवर्तक कवि माना जाता है।  अपनी रचना के माध्यम से पंत ने भाषा में निखार लाने के साथ ही भाषा को संस्कार देने का भी प्रयास किया। प्रकृति और प्रेम के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पंत हिन्दी साहित्य संसार में कविता को एक नयी ऊंचाई दी। 1919 में महात्मा गाँधी के सत्याग्रह से प्रभावित होकर अपनी शिक्षा अधूरी छोड़ दी और स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय हो गए। हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेजी और बंगला का स्वाध्याय किया। आप प्रकृति-प्रेमी थे और बचपन से ही सुन्दर रचनाएँ लिखा करते थे। आपकी प्रमुख कृतियां हैंरू उच्छ्वास, पल्लव, वीणा, ग्रन्थि, गुंजन, ग्राम्या, युगांत, युगांतर, स्वर्णकिरण, स्वर्णधूलि, कला और बूढ़ा चाँद, लोकायतन, सत्यकाम, मुक्ति यज्ञ, तारापथ, मानसी, युगवाणी, उत्तरा, रजतशिखर, शिल्पी, सौवर्ण, अतिमा, युगपथ, पतझड़, अवगुंठित, ज्योत्सना, मेघनाद वध। खादी के फूल हरिवंशराय बच्चन के साथ संयुक्त संग्रह है । मधुज्वाल उमर ख़ैयाम की रुबाइयों का फारसी से हिन्दी में अनुवाद है । आपको “चिदम्बरा” के लिये भारतीय ज्ञानपीठ, लोकायतन के लिये सोवियत नेहरू शांति पुरस्कार और हिन्दी साहित्य की अनवरत सेवा के लिये पद्मभूषण से अलंकृत किया गया।
पंत जी को विरासत के तौर पर भारतेंदु और द्विवेदी युग की वह काव्य परंपरा मिली थी जो कि खड़ी बोली का एक स्वरूप तैयार कर चुकी थी। यह छायावाद एवं पंत जी की ही देन है कि खड़ी बोली में कोमल भावों को प्रस्तुत करने की चुनौती को स्वीकार किया गया।