रिपोर्ताज विधा के प्रवर्तक थे कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर

(बाल मुकुन्द ओझा)


देश के जाने माने कवि और लेखक कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर का जन्म 29 मई 1906 को देवबन्द (सहारनपुर) में हुआ था। इन्होने कुछ समय तक खुर्जा की संस्कृत पाठशाला में शिक्षा प्राप्त की। वहाँ पर आसफ अली के भाषण से प्रभावित होकर इन्होने पढाई छोड़ दी और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पडे। तत्पश्चात इन्होने अपना सारा जीवन राष्ट्र सेवा को समर्पित कर दिया। सन् 1930-32 और 1942 ई० में जेल में राष्ट्रीय नेताओं के सम्पर्क में रहे। स्वतंत्रता के पश्चात इन्होने स्वयं को पत्रकारिता में लगा दिया। 9 मई सन् 1995 ई० में इनका देहावसान हो गया।
हिन्दी के प्रसिद्ध साहित्यकार, पत्रकार एवं स्वतंत्रता सेनानी कन्हैया लाल मिश्र प्रभाकर उन अनूठे और विलक्षण रचनाकारों में हैं जिन्हें साहित्य और पत्रकारिता में सिरमौर माना गया। पत्रकारिता के क्षेत्र  में इन्हे विशिष्ट ख्याति प्राप्त है। इन्हें रिपोर्ताज विधा के प्रवर्तक के रूप में भी जाना जाता है। हिन्दी साप्ताहिक व मासिक पत्रों में साहित्यिक टिप्पणियों का स्तंभ सबसे पहले प्रभाकर जी ने ही आरंभ किया था। पत्रकारिता को सेवा भावना के रूप में स्वीकार किया और तदनुरूप ही अपने लेखन को अंजाम दिया। प्रभाकर जी की भाषा आम आदमी की भाषा थी। हिंदी के  साथ-साथ आपने उर्दू, फारसी एवं अँग्रेजी शब्दों का भी प्रयोग किया है। आपकी भाषा में मुहावरों एवं लोकोक्तियों का सहज प्रयोग हुआ है। जनता को सीधे सम्बोधित शब्दों में अपनी बात कहते थे। बिना लाग लपेट के अपने वाक्यों को प्रस्तुत करते थे।  
जिंदगी मुस्कुराई, जिंदगी लहलहाई, बाजे पायलिया के घुंघरू, महके आंगन चहके द्वार, आकाश के तारे धरती के फूल, माटी हो गई सोना, जियो तो ऐसे जियो, दीप जले शंख बजे तपती पगडंडियों पर पदयात्रा, सतह से तह में, अनुशासन की राह में, यह गाथा वीर जवाहर की, एक मामूली पत्थर, दूध का तालाब, भूले हुए चेहरे, नई पीढ़ी नए विचार, बढ़ते चरण उनकी प्रमुख कृतियां है। 
मानवीय गुणों के सजग प्रहरी के रूप में प्रभाकरजी को सदैव स्मरण किया जाएगा। जिंदादिली, विनम्रता, धैर्य और विवेक प्रभाकर जी के व्यक्तित्व का प्रमुख गुण रहा। उनके द्वारा रचित साहित्य एवं उनके बहुमुखी प्रेरक व्यक्तित्व के लिए मेरठ विवि द्वारा डी लिट की मानद उपाधि, भारतेन्दु पुरस्कार, गणेश शंकर विद्यार्थी व पराडकर पुरस्कार, महाराष्ट्र भारती पुरस्कार सहित दो दर्जन से अधिक सम्मान उन्हें मिले थे। प्रभाकर जी ने कहा था कि श्रम ही साधना की सबसे बड़ी पूंजी है और उसी से प्रतिभा का विकास होता है।