स्माइलिंग बुद्धा ने दी भारत को ताकत

(बाल मुकुन्द ओझा)


भारत आज दुनिया के उन ताकतवर देशों में शामिल है जिसने अतीत में अपनी शक्ति का लोहा मनवाया है। भारत ने 18 मई 1974 को राजस्थान के पोखरण में अपना पहला भूमिगत परमाणु परीक्षण कर देश को दुनिया के परमाणु संपन्न देशों की कतार में खड़ा कर दिया। राजस्थान के पोखरण में भारतीय सेना बेस में 75 वैज्ञनिकों की टीम ने स्माइलिंग बुद्धा टेस्ट का सफल परीक्षण किया। सुबह आठ बज कर पांच मिनट पर भारत ने अपने पहले परमाणु बम पोखरण का सफल टेस्ट कर पूरी दुनिया में अपना लोहा मनवाया था। परमाणु बम का व्यास 1.25 मीटर और वजन 1400 किलो था. सेना इसको बालू में छिपाकर लाई थी। सुबह 8 बजकर 5 मिनट पर यह राजस्थान के पोखरण में विस्फोट किया था। इस परीक्षण को ‘स्माइलिंग बुद्धा’ का नाम दिया गया था। यह पहला मौका था जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्य देशों के अलावा किसी और देश ने परमाणु परीक्षण करने का साहस किया। भारत के परमाणु टेस्ट को  स्माइलिंग बुद्धा नाम देने के पीछे भी एक काफी ठोस वजह थी। जिस दिन परमाणु बम का परीक्षण होना था उसी दिन बुद्ध पूर्णिमा थी। इसी को देखते हुए वैज्ञानिकों ने परमाणु टेस्ट को स्माइलिंग बुद्धा का नाम दिया। इतना ही नहीं, कहते हैं कि मिसाइल पर स्माइलिंग बुद्धा की फोटो भी अंकित की गई। परीक्षण के दिन से पहले तक इस पूरे ऑपरेशन को गोपनीय रखा गया था। यहां तक कि अमेरिका को भी इसकी भनक नहीं लग पाई।
 इस गोपनीय प्रोजेक्ट पर काफी वक्त से एक पूरी टीम काम कर रही थी। 1967 से लेकर 1974 तक 75 वैज्ञानिक और इंजीनियरों की टीम ने सात साल कड़ी मेहनत की। 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच भीषण युद्ध हुआ और इसी दौरान चीन ने थर्मोन्यूक्लियर डिवाइस विकसित कर परमाणु शक्ति संपन्न होने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ा लिया था। दुश्मन पड़ोसी की ये हरकतें भारत को चिंतित व विचलित कर देने वाली थीं।
भारत को परमाणु विकसित देश बनाने की यात्रा 1944 में शुरु की गई और इसका पहला परिणाम साल 1974 में मिला। इन सब के बीच करीब तीस साल का लंबा सफर गुजर चुका था। इन तीस सालों में भारत ने काफी उतार चढ़ाव देखे। इन सब के बावजूद परमाणु विकास कार्यक्रम निरंतर चलता रहा। परमाणु कार्यक्रम ने प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के कार्यकाल में रफ्तार पकड़ी थी। जब यह सफल कार्यक्रम अंत तक पहुंचा तब भारत देश की बागडोर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के हाथों में थी। दोनों ने ही पूरा समर्थन इसे दिया। वैज्ञानिकों ने भी इसे बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।